अम्मा
आज एक #संस्मरण ......
क्योंकि अम्मा और नानी जैसा कोई दूसरा जादुई चरित्र, बच्चों की दुनिया में होता ही नहीं।😊
📌 अम्मा
"गुनगुन हाथ-पैर धोकर ही अंदर आना घर में"। आज फिर से खेलकर आती हुई बिटिया को घर के अंदर आने के लिए टोकते समय,
अनायास अम्मा यानी मेरी दादी याद आ गयीं।
मेरी अम्मा , मेरे बचपन में ही चल बसी परन्तु अभी भी उनकी छवि आँखों में वैसी ही बसी हुई है। दुबली-पतली, लम्बी सी काया , सफेद साड़ी से ढकी , सिर के सफेद बाल भी, सदा साड़ी के पल्लू से ढके,हाथ में सहारे के लिए ली हुई छड़ी ....
मेरी अम्मा , सूर्योदय से पहले ही जग जाती , स्नान के पश्चात उनके ठाकुर जी का स्नान, चंदन ,आरती , भोग ।
और भोग भी ऐसा कि भगवान भी सोचते होंगे कि उफ़्फ़ ये भी खाना पड़ेगा ।
मेरी अम्मा , अपने ठाकुर जी को चाय का भोग , फूंक-फूंक कर लगाती थी । हमेशा मम्मी को डांट पड़ती थी, "इतनी गरम चाय ले आयी हो , ठाकुर जी का मुँह नहीं जल जाएगा ?"
अम्मा जब कहीं बाहर जातीं तो अपनी मारकीन की ,हरी किनारे वाली सफेद धोती पहन जाती और धोती को सड़क से आधी फुट ऊपर उठाकर चलती, कोई छू ले तो #दहिजार नामक गाली जरूर सुनता था। बाहर से आकर , धोती धोयी जाती, स्नान पुनः होते , तब घर के कार्य में लगा जाता ।
सुबह जगकर हमें सबसे पहले धरती माता के पैर छूने के बाद ही तखत से उतरकर, धरती पर पैर रखने की अनुमति थी।
"#कराग्रे वसते #लक्ष्मी, करमध्ये #सरस्वती ...."के जप के साथ ही, हथेली के दर्शन कर ही आंखें खोलनी होती थी।
बचपन में हम लोगों के पास , एक ही स्कूल यूनिफॉर्म होता था । तो चाहे कितनी कस के भूख लगी हो , वो यूनिफॉर्म उतारकर , कायदे से बरामदे की लकड़ी की खूंटी पर टांगने के बाद और हाथ-पैर, मुँह धोकर ही खाना मिलता था । अगर किसी ने स्कूल के कपड़े पहने हुए , कुछ छू लिया तो फिर पहले अम्मा की बहुआयामी छड़ी की मार खाओ , फिर खाना खाओ।
रात में सोते समय, अम्मा कहानी सुनाती और बड़े चाव से हम सुनना शुरू करते । "फिर क्या हुआ,अम्मा?" कहते -सुनते ऐसा लगता था कि आज पूरी कहानी सुनकर ही सोएंगे । पर पता नहीं कब नींद आ घेरती और हम कभी भी कोई कहानी पूरी न सुन पाते । दोपहर में यदि जिद करते भी कि "अम्मा, अभी कल वाली कहानी सुना दो, रात में सो गए थे" तो अम्मा कहती ," दिन में कहानी नहीं सुनी जाती, मामा खो जाते हैं । और हम अपने मामा के खोने के डर से पूरी कहानी रात में ही सुनने का प्रण करते।
उन दिनों हर समय, समय जानने की उत्कंठा नहीं होती थी, यानि घड़ी देखने की जरूरत कम ही पड़ती थी। हम भाई-बहनों और मोहल्ले के बच्चों को रात के आठ बजने का इंतज़ार जरूर रहता था, पर उसके लिए भी घड़ी देखने की जरूरत नहीं पड़ती थी बल्कि जगन्नाथ मंदिर के घण्टे-घड़ियाल की ध्वनि ही आठ बजने का घोतक होती थी।
आठ बजते ही अम्मा हम सबको लेकर, मन्दिर पहुँच जातीं। अम्मा मन्दिर के चबूतरे पर बैठ जातीं और हम सब मन्दिर के अंदर घण्टे-घड़ियाल ,शंख-नगाड़ें और ताली बजाने में मग्न हो जातें।
प्रतिदिन मंदिर की आरती में शामिल होने के कारण ही हम छोटी उम्र में ही हिंदी के कठिन और बड़े शब्दों को भी आसानी से सीख गए थे, भले ही हमारा लक्ष्य आरती के बाद मिलने वाला प्रसाद होता था।
लोग कहते थें कि मेरी अम्मा बड़ी सख्त थी। अनुशासन में कोई समझौता नहीं करती थीं।
हम बच्चों को भी सख्त आदेश थे कि " या तो किसी से लड़ना नहीं, पर जब लड़ना तो अंजाम तक पहुँचा कर ही आना। मार खा के, रो के न आना। मार के ही आना।"
मेरी अम्मा ने न तो कभी कुकर का बना खाना खाया और न ही कभी स्टील के बर्तनों में भोजन किया । उनकी एक फूल की थाली , पीतल के गिलास , और कांच की प्याली निश्चित थी । उसी फूल की थाली में , उनके ठाकुर जी खा लेते थे और ठाकुर जी के बाद, वो उसी में खा लेतीं थीं ।
शाम को पहले ठाकुर जी चाय पीते ,तब अम्मा । रात में निश्चित समय पर ठाकुर जी का भोग लगता और तब अम्मा, अपना भोजन करतीं । भगवान की आरती के पश्चात , भगवान उढ़ाये जाते , उसके बाद अम्मा अपने बिस्तर, बिछाकर सो जातीं।
सबकुछ समय पर ....
जमीन पर बैठकर,लकड़ी के पाटे पर भोजन, जमीन पर शयन ।और बिस्तर सोने के समय ही बिछाए जाते और जगते ही सबसे पहले उठाए जाते । हर कोई पैर भी नहीं छू सकता था । पैर छूने वाले से भी पूछताछ होती थी कि नहाए हो ?
ये सब उनके सनातनी नियम थे ।
आज जब सम्पूर्ण विश्व , मान रहा है कि हमारे नियम ऐसे ही होंगे ,तब ही हम सुरक्षित रहेंगे ।तब सिर्फ एक ही प्रश्न मन में उठता है कि अपनी सनातनी परंपरा बदलकर, हमने क्या पाया???
✍️
अमिता दीक्षित
Very nice maam
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