ग्रीष्म ऋतु
ग्रीष्म ऋतु
धरती का जो ताप बढ़ रहा,
सोचो किसका पाप बढ़ रहा।
कौन वृक्ष वन काट रहा है।
मृत्यु निमंत्रण बाँट रहा है।।१।।
धरती अब अंगार बनी है,
मानव से ही तना-तनी है।
कौन बचाने अब आएगा,
शीतल इसको कर जाएगा।।२।।
सूरज का रथ तेज बढ़ा है,
भूमण्डल के मध्य खड़ा है।
जलचर नभचर कांप रहे हैं,
जल बिन सारे हाँफ रहे हैं।।३।।
तृण तरुवर सब जलते मानो,
भाग्य अधम हम सबके जानो।
वह नक्षत्र अब कहाँ से लाएँ,
जिसमे बादल जल बरसायें।।४।।
सारे सर श्रीहीन हुए हैं,
जल बिन जैसे मीन हुए हैं।
उमस भरी गर्मी तड़पाती,
तन-मन में जो आग लगाती।।५।।
ए सी का उपयोग बड़ा है,
फिर गर्मी का रोग बढ़ा है।
हमको लगता हम शीतल हैं
गर्मी तो इसका प्रतिफल है।।६।।
फ्रिज ए सी जो यंत्र बना है,
गर्मी का ये मन्त्र बना है।
क्लोरो फ्लोरो कार्बन छोड़े,
गर्मी से ये रिश्ता जोड़े।।७।।
धरती हमे पुकार रही है,
पौरुष को ललकार रही है।
बेटे हो कुछ कर्ज चुका लो,
तुम भी अपना फर्ज निभा लो।।८।।
आओ हम सब प्रण ये ठाने,
पृथ्वी को माता सम माने।
इसके तन को खूब सजा दें,
सकल धारा पर वृक्ष लगा दें।।९।।
✍️
रमेश तिवारी
(सहायक अध्यापक)
प्राथमिक विद्यालय हरमंदिर खुर्द,
क्षेत्र -फरेन्दा
जिला - महराजगंज (उत्तर प्रदेश)
यथार्थ सामरिक रचना।
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