चाटुकारिता
चाटुकारिता
चाटुकारिता....जी हाँ,चाटुकारिता। चाटुकारिता भी एक अजीब आदत है!एक बार स्वभाव में उतरने की देरी है.... सामने वाले को तो खुश करती ही है,स्वयं को भी आभासी सुखानुभूति से सराबोर कर देती है।चापलूसी से जीवन को सहज बना लेना....जीवन की सच्चाई से मुंँह मोड़ना ही है।
*मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना तुण्डे तुण्डे सरस्वती* ।
तो भला,एक आदमी हर समय हर किसी को खुश कैसे कर सकता है?...शायद इसी बेजा प्रयास में जन्म लेती है- चाटुकारिता।
फिर क्या?...व्यक्ति स्वयं की सत्ता को भूलकर नित नये-नये स्वांँग रचना शुरू करता है...और खेल शुरू हो जाता है - *खुद की खुद्दारी को खुर्द करने का* ।
खुशामद से आगत आभासी खुशी स्वयं के असल का आभास ही नहीं होने देती....जिस प्रकार दीमक खड़े पेड़ को भीतर से पूरा चाट गया होता है,ठीक उसी प्रकार चापलूसी भी व्यक्ति के वजूद को चूस कर खोखला कर देती है।
चापलूस भी लेमनचूस की तरह स्वाद में तो मीठे होते हैं पर भीतर से रीते होते हैं...जो बाहर लेबल दिखता है,वह असल में अंदर होता नहीं। चापलूस बूढ़ा हो जाता है पर चापलूसी कभी बूढ़ी नहीं होती ,वह सदा जवान रहती है।
चापलूसों के अपने ही अंदाज होते हैं...
*हंँस-हंँस के बतियाने वाला*
*मंद-मंद मुस्काने वाला*
*मस्का खूब लगाने वाला*
*सबके राज बताने वाला*
*मुंँह पर प्यार जताने वाला*
*सबसे हाथ मिलाने वाला*
*पीछे घात लगाने वाला*
...........................
कुछ इसी तरह के लक्षण उनमें परिलक्षित होते हैं।
चापलूसी की प्रवृत्ति खुद के लिए ही नहीं,समाज के लिए भी घातक है।ऐसा स्वभाव हेय है,निंदनीय है,त्याज्य है... यह कहीं से भी मानव जीवन के लिए उपादेय नहीं है।
स्वभाव को उन्नत करना ही सबसे बड़ी उन्नति है।तुलसीदास जी ने मानस में मनुष्य की महत्ता को कुछ इस प्रकार बताया है-
*बड़े भाग मानुष तन पावा*, *सुर दुर्लभ सद् ग्रंथन्हि गावा* । *साधन धाम मोक्ष कर द्वारा,पाई न जेहिं परलोक संँवारा* ।।
तो क्या इस दुर्लभ काया को ऐसे कृत्य में लगाना लाज़मी है?...वेदविहित बात "मनुर्भव" को मूर्तिमान करना मानव मात्र की महती ज़िम्मेदारी है-
उन्नति के आसार जहांँ,
योनि यही इकलौती है।
मानव होके मानव होना,
सबसे बड़ी चुनौती है।।
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अलकेश मणि त्रिपाठी "अविरल"(स.अ.)
पू.मा.वि.- दुबौली
विकास क्षेत्र- सलेमपुर
जनपद- देवरिया (उ.प्र.)
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