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मजदूर

मजदूर

जिस रोटी की चाह में हमने घर से पांव निकारी है,
जिस पेट की आग के खातिर छोडी़ दुनियादारी है.

वहीं रोटी दूर पड़ी है और हमारा भूख से मरना जारी है,
मजबूर हैं साहब! मजदूर हैं हम,हम पर कहर बरसना जारी है।

हाड़ मांस गलाकर जिस लोहे को पिघलाना हमारी कलाकारी है,
आज उसी लोहे ने कुचल कर हमको ये बतलाया है कि खेल( जीवन) अभी भी जारी है.

भाग कहाँ तक तुम पाओगे दूर पहुंच हमारी है,
मजबूर हैं साहब, मजदूर हैं हम ,हम पर कहर बरसना जारी है।

जिस पटरी को हमने बिछाया जिन सड़कों को हमने बनाया, वो भी नहीं हमारी है,
जब भी चले हम उनपर , उसने भी हंस कर ठोकर मारी है.

चलते हुए भी हम डरते हैं, जाने अब किसकी बारी है,
मजबूर हैं साहब, मजदूर हैं हम ,हम पर कहर बरसना जारी है।

महल बनाये, भवन बनाए और बनाई अटारी है,
पर जब भी बरसा पानी खुद पर , तो भीग - भीग कर रातें हमने गुजारी हैं.

जितनी ढकते उतनी दिखती, हवाओं ने भी लाज उघारी है,
मजबूर हैं साहब, मजदूर हैं हम ,हम पर कहर बरसना जारी है।

अन्न उगाया, फल फूल उगाए, इन सब की सिंची क्यारी है,
सींचा इन्हे लहू-स्वेद से, और पसीने का  बहना  अब भी जारी है.

पर आयी बात जब खुद के पेट की, तब आधी ही खाकर गुजारी है,
मजबूर हैं साहब, मजदूर हैं हम ,हम पर कहर बरसना जारी है।

आती है जब कोई महामारी, सदा हमीं पर पड़ती भारी है,
खाली बर्तन, खाली जेबें , खाली पेट ही , हमारी तैयारी है,
देखते रहते न्याय प्रभु का, कि उसकी लीला न्यारी है,
मजबूर हैं साहब, मजदूर हैं हम ,हम पर कहर बरसना जारी है।

✍️
विनोद दूबे
स. अ. प्राथमिक विद्यालय कूड़ा भरत
ब्लॉक-बांसगांव
गोरखपुर
   

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