आपदा की पीड़ा
आपदा की पीड़ा
विह्वल चपल मुख
कान्ति गौरव,
स्नेहपुरित,सार गर्भित राग मय मां वसुंधरा।
हरीतिमा श्रृंगार मां का
निज छाई लाली नव वधू जस,
पर,,,
मानव करे छिन्न-भिन्न श्रृंगार दोहन,
तड़प जाती मां वसुंधरा।
समय की चाल से बढ़के आगे,
भूल गये मानव पशु-पक्षी ,बाग और ताल को,
कल-कल निश्छल नदियां भर गई कचरे की घाव से।
लख त्रासदी खुद की विवश नैनन नीर बहाये मां वसुन्धरा।
वायु -प्रदूषण हुवा इतना श्वांस अवरुद्ध हो रही,
सुन-सुन के ध्वनि का वेग,सीमा वेग की रुक गई।
रे मानव सुन ले करती करुण चीत्कार मां वसुन्धरा।।।
तहस-नहस कर देती है मानव जनित ये आपदा,
प्रकृति का कहूँ प्रकोप या मानव जनित ये त्रासदी,
करता न चिन्तन एक पल भी मानव हो रही बर्बादियां,
लख चहुँ ओर करती क्रन्दन मां वसुन्धरा।।
फिर भी,,,,,,,,,,,
लेती समेट 'ममता 'के आंचल की छांव में मां वसुंधरा।।।।।।।।
✍️रचनाकार
ममताप्रीति श्रीवास्तव
गोरखपुर
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