मजदूर
मजदूर
सृष्टि श्रम साध्य है और इस श्रम साधना के श्रेष्ठ साधक शायद ये श्रमकार ही हैं।उन्नति की अप्रतिम प्राचीर इन्हीं के पसीने से पुष्ट होती है,जनमानस की आम से खास तक की अभिलाषाएँ इन्हीं से तुष्ट होती हैं।जनजीवन के सारे सारोकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन श्रमकारों से ही तो जुड़े हैं!क्रय की जाने वाली माचिस की डिबिया हो या नमकीन वाली भुजिया,सर्फ की पुड़िया हो या साबुन की टिकिया,प्रसाधन के संसाधन हों या आवागमन के साधन.....कहीं न कहीं इन सब के निर्माण में इनकी महती भूमिका होती है पर शायद इनकी नियति ही यही है..... कौन कहेगा ?
दिया नहीं.. बाती जलती है,तेल जलता है।
पौरुष से परुष-पाषाण पर प्रहार करते-करते इनके हौसले भी इतने बुलंद हो जाते हैं कि मार्ग की सारी विघ्न-बाधाएंँ इनके लिये गौण हो जाती हैं।इन्हें सिर्फ मंजिल दिखाई देती है।ये जिस काम को ठान लेते हैं,पूरा करके ही दम लेते हैं।इनके प्रति चिंतन के विभिन्न आयामों में एक आयाम यह भी है जो शायद हम सब से अछूता रह जाता है।इनका यह स्वाभाविक गुण देखकर ऐसा लगता है मानो जीवन के समग्र दर्शन इन्हीं में प्रस्फुटित होते हैं,यहीं पल्लवित होते हैं और यहीं फलीभूत भी।
"पैदल ही माप देता हूंँ ज़मीन,
भीतर जमीर जिंदा रखता हूँ।
मैं मजदूर हूंँ!मैं मजबूर हूंँ!
पर कबीर जिंदा रखता हूँ।।"
जीवन के इस जीवंत जज़्बे को जागृत करने के लिए ही शायद किंचित लोग यहांँ पोथियों में प्रेरक प्रसंग पढ़ा करते हैं,अभिप्रेरक दृश्य देखा करते हैं...
"मायने वजूद के मुस्तक़िल मेरे,
वतन की तस्वीर जिंदा रखता हूँ।
मुक़द्दर मुझे मयस्सर हो न हो,
वतन की तक़दीर जिंदा रखता हूँ।।"
इनके कर्मों की परिणति भले ही अपरिमित हो पर इनमें खुद के लिए अपेक्षा बड़ी सीमित हो जाती है।ये किसी यश,कीर्ति,वैभव आदि के अभिलाषी नहीं होते..इनका सहज व सरल स्वभाव परिणाम में ही प्रसन्न हो जाता है।ये स्वयं को सिद्ध करना ही स्वयं की सिद्धि मानते हैं...
"महफूज़ हो मुल्क-ए-विरासत,
यह अरदास जिंदा रखता हूंँ।
सांँसे थम जायेंगी बेशक !
हर साँस मे आस जिंदा रखता हूंँ।।"
इनकी जिजीविषा व कर्मण्यता महनीय है,अनुशंसनीय है व अनुकरणीय है।
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अलकेश मणि त्रिपाठी "अविरल"(सoअo)
पू०मा०वि०- दुबौली
विकास क्षेत्र- सलेमपुर
जनपद- देवरिया (उoप्रo)
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