जीवन पद्वति से मानव कल्याण की ओर
जीवन पद्वति से मानव कल्याण की ओर
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वैश्विक महामारी और जनसंख्या के बीच बचाव की महीन रेखा खींच पाना शायद असम्भव सा लग रहा है। विश्व के वैज्ञानिक भी बचाव की रेखा उसी प्रकार खोज रहा है जिस प्रकार मानव जाति की धारणा बन चुकी है= सामाजिक दूरी का विकल्प। शायद आम मानव जाति के पास कोई चारा भी तो नहीI विस्फोटक जनसंख्या और आर्थिक मजबूरियाँ भी विश्व के अनेक देशों के बीच विकराल समस्या जो बनी हुयी हैI आर्थिक समस्याओं से बचने तथा अपना खुशहाल जीवन के लिए मानव न जाने कहाँ कहाँ तक खानाबदोश जीवन जीने को चल पड़ता है। मानव का उत्थान और फ्तन खानाबदोशी जीवन ही निरिचत करता हैI पलायन एक प्राकृतिक घटना होती है, नियोजित नही। पलायन के पश्चात ही मानव जीवन को सुखद बनाने के लिए नियोजन करता हैI दोनो तथ्य एक साथ महीन रेखा से जुड़कर भी अलग अलग है।
विश्व में अचानक उथल पुथल की घटना जो आज महामारी का रूप ले चुकी है उसके साथ जीना, मरना और खपना तो पड़ेगा ही । यदि मानव इस महामारी के साथ कदम से कदम मिलाकर चल पाने में असर्मथ हो जाता है तो यह हम सभी को स्वीकार कर लेना र्चाहए कि पुनः सोलहवी शताब्दी में पुनः प्रवेश करने का प्रयास कर रहे है। जहाँ भुखमरी, गरीबी, बीमारी,अशिक्षा की समस्याए विकराल रूप से मुंह बाए खड़ी थीI समस्त मानव जाति की अब जिम्मेदारी बनती है कि वैश्विक महामारी और सुखद भविष्य के बीच हम सभी को स्वयं रेखा खीचनी होगी, जीवन पद्वति को बदलना पड़ेगा। सामाजिक दूरी के अलावा आम मानव जाति के पास कोई विकल्प भी नही हैI
जीवन पद्धतियों में हम फास्ड फूड, खोमचे, चाय की दुकाने और रेस्त्रा भी भूलने पड़ेगें। शादी समारोहो में लोगों की भागीदारी भी सीमित करनी पड़ेगीI हाट बाजार के नियम भी बदलने होगे॥ अर्थात बेड टी से गुड नाइट और हैप्पी बर्थ डे से डेड डे तक का जीवन बदलेगा और बदलना पड़ेगा। यह अति शयक्ति नही अब हमारा यथार्थ है॥
महामारी के दौर में मानव जाति के कुछ लोग जूझ रही समस्याओं से लोगो उबारने का प्रयास कर रहे होते है और वहीं कुछ लोग उसी में अपनी तरक्की का जरिया भी खोज लेते है, मसलन सबकुछ अप्राकृतिक होने लगता है। इस दौर के लोगों में संवेदना शून्य हो जाती हैI फिर भी ऐसे दौर में ऐसे लोगों को कतई नही भूला जा सकता जो अपने आस पास हो रही घटनाओं के प्रति संवेदनशील होते है। गरीब, असहाय लोगों को भोजन, पानी सहित मूलभूत वस्तुओं की उपलब्धता को बनाए रखते हैI प्रवासी मजदूर जो आने वाली अपनी पीढ़ी के सुखद भविष्य का निर्माण करने की लालसा से पलायित थे अचानक उसी ओर जीवन बचानें के लिए जहाँ से चले थे हजारों किलोमीटर पैदल, ट्रक, बसों से वापस आने लगते हैI आए भी क्यो न। भूख, प्यास और संरक्षा उसी जीवन पद्वति खींच ही लाती है।
मानव जाति के साथ बिश्व के तमाम देशों के साथ भी यही मजबूरी होती है- ग्रहस्थी और देशों को कैसे चलाया जाए। यही से मानव जाति को वैश्विक महामारी के साथ जीना पड़ता है। इसी के बीच में हमें तब तक एक सीमा खींच कर साथ में जीना होगा जब तक विश्व के तमाम वैज्ञानिक रास्ता नही खोज लेतेI हमें शिक्षित होना होगा और लोगों को शिक्षित भी करना पडेगा कि अमुक तरीके से ज़ीवन जिया भी जा सकता है।
इस दौर में बिश्व के उन तमाम लोगोँ को भी नही भुलाना भी बेमानी होगी जो अल्प संसाधनों के बीच मानव जाति को बचाने के लिए अपने अपने स्तर से लगी है। समाज में उस छोटी सी चिडियां को भी महत्व महामारी और आपदा के बीच नही भुलाया जा सकता जो आग में पानी डालने का काम करती है। हम उस छोटी और बड़ी चिडिया को भी सैल्यूट करते जो अपना योगदान पुनः विश्व को बचाने के लिए जुट पड़ी है।
विश्वास और आशा बनाए रखे यह दौर भी गुजरेगा। वह दौर भी आएगा जहाँ मानव पुनः विश्व कल्याण की ओर अग्रसर होगा....
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राकेश कुमार (शिक्षक)
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