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llमांll

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तू कोई शब्द नहीं,
जिसको कविता में रच डालू।।
    तू तो है अभिमान मेरा,
    जिसको मै खुद में ही पा लूं।।
बचपन में तेरी चिंता की,
जो मैंने हंसी उड़ाई।।
        आज तेरी वो परछाई,
         मैंने खुद में ही पाई।।
अक्सर मैंने तुझको छुप कर,
हंसते देखा,रोते देखा।।
         मेरी नासमझ सी बातो को,
         तेरा करना वो अनदेखा।।
तेरी ममता की छांव मे मां,
मै उन्मुक्त भाव से बढ़ती थी।।
        आज सोचती हूं कैसे मां,
        तुझको खुद मे ही ढालूं।।
मां तू कोई शब्द नही,
जिसको कविता मे रच डालूं ।।
           आज समझ पाई वो लकीरे,
            जो पड़ती थी तेरे माथे पे।।
जाने पर घर से बाहर मेरे,
चेहरे पे आये सन्नाटे।।
       अनकहा सा सब ना बोल मुझे,
         कुछ शब्दों मे ही समझाना।।
फिर सहलाते मेरे बालों को,
दुनियादारी को बतलाना।।
       अब मै जब सोचूं खुद को मां,
          तो तुझ जैसा ही पाती हूं।।
कि अपनी रानी बिटिया को मै,
हर बुरी नजर से कैसे बचा लूं।।
    मां,तू कोई शब्द नहीं,
  जिसको कविता में रच डालूं।।
अपने सपनो को भी तूने मां,
मेरी नजरों से देखा था।।
        तेरी आंचल के छांव तले,
        सब कुछ सपनो के जैसा था।।
मां,अब मै हो गई बडी़,
पर तेरी चिंता वैसी है,
           एक तू ही जो पूछे है,
            की मेरी बेटी कैसी है।।
इन रिश्तों की भीड़ मे मां,
तुझको ही अपना पाती हूं।।
        हां,है तू परछाई ईश्वर की,
       जिसे मै मन मंदिर मे बैठा लूं।।
मां,तू बन गई मेरी कविता,
जिसको मै खुद मे रच डालूं।।
✍️
किरन गुप्ता(प्र०अ०)
  प्रा० वि० परसिया
  बांसगांव, गोरखपुर

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