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"माधव"

"माधव"
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माधो बैठा है टीले पर
दोनों हाथों सिर थामे
सभी कहते हैं
मधुवा पगला गया
घंटों टीले पर बैठे
जाने क्या निहारता है
बड़बड़ता है,
बड़े-बड़े पाथर बटोर
फेकता है, अपने धुन मे बहती
गंगा माय की ओर
और मुँह ऐसा खोलता है मानो
गंगा माय को ही लील लेगा...
बच्चे लुहकारते हैं
ढेला फेकते हैं, लेकिन
मधुवा कुछ नहीं कहता ।

पिछले साल ही तो
जब उफनाई थी गंगा माय
उससे पहले मधुवा
हर कातिक गंगा माय को सिर धरने
गांव भर मे सबसे आगे रहता
बाप-माय बिगड़ते, साथ चलना
कहीं कोई
भूत -पिशाच पैर खींच ले
पर मधुवा 
हँसता, ठठा कर हँसता 
माय भी भला.......अपने बच्चों के दुःख देख सकती है
स्याह रात धुलने लगी है
धीरे-धीरे
सब कुछ भूल जाना चाहता है मधुवा
सब कुछ
पर भूले भी तो कैसे
माय-बाप, भाय-बहिन, दुलारी बूआ
धर-दुआर, गाय-गोरू, भैस-बकरी, नीम का पेड़

ननिया कहती है
अब नहीं देखा जाता, कलेजा फटता है
मघुवा का चिल्लाना, जोर-जोर से रोना
झुलसाये बालों को नोचना
जाने कैसे-कैसे मुँह बनाना
बीच-बीच मे जोर-जोर का हँसना
मर क्यों नहीं जाता अभागा
छोड़ क्यों गई गंगा माय
हजारों-हजारों को................

आज मधुवा
मस्त, फक्कड़, ब्रम्ह गियानी की तरह बतियाता है, और
साँझ ढलते ही
आसमान पर दिपदिपाते
असंख्य तारों के बीच
जाने क्या ढूढता है घंटों-घंटों
सारी-सारी रात....

✍️
राजीव  कुमार
पू.मा.वि. हाफ़िज़ नगर 
क्षेत्र - भटहट, जनपद - गोरखपुर

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