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परदेशी की ब्यथा

परदेशी की ब्यथा

अपनों को बेगाना समझ बड़े ख्वाब सजाने निकला था शहर 
रिश्तों की कद्र समझा गया कुदरत का कहर।

घायल परिंदे सा जीवन अपना  हो गया, इतने सपने जो बुने टूट ही गया..
जीवन में दुःखो की बदली सी छाए हुई,
सहर के आभासी रिश्तों की अब बात क्या करू?
चैन सुकून लगता है खो सा गया।


उम्मीदों की किरण जगाऊँ तो कैसे?
ब्यथित तन ब्याकुल मन को मनाऊँ तो कैसे?

बड़ा जतन किया खून पसीने से सजाया हूं तेरे शहर को,
 
पर जो भी आया मेरे उदासी से होने रूबरू, तस्सली न देके बस काँटों का बीज ही बो कर गया,
घायल परिंदों सा जीवन अपना  हो गया...

परिंदे के पंखों में मरहम लगा के,
उसके ऊँची उड़ान के ख्वाहिशो की याद दिला के,          
आसमां की ऊंची उड़ान की बुलन्दियों को              
पाने के सपने दिखा के,
कर दे आजाद स्वछंद विचरण की लालसा दिखा के।
जरूर उन्मुक्त ख्यालों से अपनी मंजिल को पा लेगा वह फिर से।

पर मुझे कौन दिलायेगा झूठे 
दिलासे?

फिर से नवजीवन नयी ऊर्जा के संचार के लिये।
फिर से सपने बुनु 
अपनी ख्वाहिशो अपनी चाहतों का, काश कोई जो होता इस अंधकारमय जीवन में उजाले की किरण जगाता,

सपने दिखता वो स्वाभिमान से जीने की लालसा जगाता।
 पर अफ़सोस  सरजमीं पर सब अपनी दुनिया में मसगूल।
 दुष्वारियों और खुशियां बाट जो रहे अपनो संग।

मैं अपनी नजरे झुका के चुरा के खुद को समझा रहा
सच है घायल परिंदों सा अपना भी जीवन हो गया....

✍️
रवीन्द्र नाथ यादव (स. अ.)
प्राथमिक विद्यालय कोडार उर्फ बघोर नवीन
क्षेत्र - गोला, गोरखपुर

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