अन्तर्मन की व्यथा
अन्तर्मन की व्यथा
अन्तर्मन की व्यथा यही है
क्या सही है ,क्या गलत है
सांसे यू ही थमी हुई है
सूने शहर,राह भी सूने
सूनी सड़के,गालियाँ सूनी
प्रकृति देखो मुस्कुरा रही है
अपना गीत सुना रही है
सरिता,पर्वत झूम रहे हैं
सारंग गगन चूम रहे हैं
प्रकृति पहले भी गा रही थी
अपना रूदन सुना रही थी
लेकिन बाहर कोलाहल था
इंसानो की रफ्तार बहुत थी
फिर माता ने छड़ी उठायी
अपनी सीख याद दिलाई
ज्यो परदेश में जाकर बालक
भूला अपने देश को बालक
मैया तो अब भी वही है
तेरी राह निहार रही है
आजा आजा बालक आजा
फिर से मां की गोद मे आजा
अन्तर्मन की व्यथा मिटा ले
थोड़ा सा विश्राम तू पा ले
✍️
रचयिता
श्रेया द्विवेदी (शिक्षिका)
कौशाम्बी, उत्तर प्रदेश
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