कोमल कलिका🙋
कोमल कलिका🙋
कोमल कलिका को जब तुमने
रोना हँसना सिखलाया था
पकड़ के कोमल कोमल अंगुली
जग में चलना सिखलाया था ।
बड़ी तोतली भाषा में
कुछ शब्दों को बतलाया था ।
आँखों के अश्रु हृदय के भावो को
अपने अंदर सिमटाया था ।
पूर्णज्ञान से पल्लवित किया
अडिंग प्रकाश से मण्डित किया
न हो मन में मिथ्य कोई
मन में सत्यता भर दिया ।
उस कोमल कलिका को
जग पथ पर.......
आगे बढ़ना सिखलाया था ।
वह पुष्प बन प्रगति पथ पर
निरन्तर गति से बढ़ रही
क्या ?
हुआ उस पथ पर जो
वह सहम कर ठिठक गयी !
वह सत्य न मिला उसे कही
जो माँ ने उसे सिखाया था ।
हर पथ हर शक्स में उसे
छलावा ही नजर आया था ।किसको कहे वह अपना
कोमल मन न समझ पाया था ।
देख दुनिया की अनहोनी
होती घटनाओ को.....
कोमल मन घबराया था !
ओ! जननी इस झूठे जग में
कैसे मैं पंख फैलाऊ....?
इस स्वार्थ की दुनिया में
कैसे...?
अकेले मैं चल पाऊ ।
क्यों ?
इस पथ पर तूने
मुझको चलना सिखलाया ।
टूटे वो सारे ख्वाब तेरे
जो तूने मुझसे देखे थे
दुनिया के तुच्छ विचारो में
शीशे जैसे सब टूट गये ।
अब दिखती है हर राह
साये सी काली मुझको
अब तो खडा हर अजीज मेरा
दुश्मन सा लगता है मुझको ।
साया भी मेरा ,अब डरने लगा
हे जननी!हर एक आहट से !
कितनी विवेकहीन है ये दुनिया
हर बेटी को ...
क्यों न बेटी समझे..?
मैं लौट पड़ी हूँ, इस जग की
झूठी फरेबी राहो से
निर्भय हो न चल पाऊँगी
अब पथ कोई अभिलाषाओं की ।
हे! जननी इस कपट भरे झूठे जग से ,मैं व्यथित आँचल में तेरे
फिर से छिप जाऊ !
वरना......दूषित नजरो से
धूमिल हो मुरझा जायेगी ...
तेरे आँगन की ...!!
तेरी ये कोमल कलिका !! ।
✍️
दीप्ति राय (दीपांजलि)
स0 अ0 प्राo वि o रायगंज
खोराबार गोरखपुर
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