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बेसिक परिवर्तन बेहद ज़रूरी

एक रुपये में तीन अठन्नी भुन जाती हैं 'बेसिक' में।
मिल जाती हैं सभी खूबियाँ एक अकेले शिक्षक में।

वही पढ़ाये, वही खिलाये, राशन ढोकर लाये।
दूध पिलाये, फल बंटवाये, ईंधन स्वयं जुटाये।

टेंडर लेकर, दर्जी चुनकर, कपड़े भी सिलवाये।
साफ़-सफाई, रंग-पुताई, बिल्डिंग तक बनवाये।

बिजली, पंखे, नल, शौचालय, सबको वही रखाये।
फर्श और खिड़की-दरवाजे, जब-तब सही कराये।

सत्यापन, सर्वेक्षण-ड्यूटी, जनगणना को जाये।
वोट बनाने घर-घर घूमे, निर्वाचन करवाये।

कभी रसोइया से उलझे, कभी स्वच्छकार टकराये।
शाला मानो खाला का घर, जो मर्जी घुस आये।

घर-खेतों में जाकर बच्चे टेर-टेरकर लाये।
बच्चों से ज़्यादा उनके अभिभावक को समझाये।

मीटिंग, रैली, पल्स-पोलियो, ऑडिट भी करवाये।
भाँति-भाँति की सूचनाओं को जैसे-तैसे जुटाये।

ढेर रजिस्टर लेकर बैठे, कॉलम भरता जाये।
आदेशों के चक्रव्यूह में घिरता-पिसता जाये।

बच्चों को एकाग्रचित्त से शिक्षक पढ़ा न पाये।
हसरत दिल में ही रह जाती, न्याय नहीं कर पाये।

उस पर भी अधिकारी आकर कमियां बीस गिनाये।
मनोव्यथा को नहीं समझकर दिल को और दुखाये।

जीभ के जैसा मानो शिक्षक, बत्तीसी के बीच।
जैसे - तैसे जान बचाकर बचपन रहा सींच।

प्राइवेट स्कूलों में ऑफिस व्यर्थ नहीं होता है।
शिक्षक केवल शिक्षण करने को स्वतंत्र होता है।

और वहाँ पर पीरियड-वाइज़ एक ही कक्षा लेता शिक्षक।
किन्तु यहाँ पर प्रायः दिन-भर कई कक्षाएं, एक ही शिक्षक।

वहाँ फेल करने की नीति, एक कक्ष में एक से बच्चे।
यहाँ उम्र से दाखिल होते, ऊँची कक्षा बच्चे कच्चे।

और एक कड़वी सच्चाई, शिक्षक भी स्वीकार करें।
कमी हमारी ओर से भी है, खुद में स्वयं सुधार करें।

समय का पालन, लगन से शिक्षण, इसमें ढील न छोड़ें।
जो कुछ भी हम कर सकते, उसमें बहाने न ओढ़ें।

शिक्षा क्षेत्र के वित्त प्रबंधन में भी दोष है दिखता।
कुल खर्चे में शिक्षक-वेतन 'अति-आनुपातिक' लगता।

उसमें से यदि पाँच फ़ीसदी भी विद्यालय में लगे।
काफी सूरत बदलेगी, किस्मत बच्चों की जगे।

और अंत में कहकर इतना बात करें हम पूरी।
बेसिक में 'बेसिक' परिवर्तन बेहद आज ज़रूरी।

रचनाकार
प्रशांत अग्रवाल,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय डहिया,
विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी,
जिला बरेली (उ.प्र.)।

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