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नेपोलियन

नेपोलियन
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हाँ, हाँ, वही —
वही नेपोलियन,
गली के कोने पर
कूड़े के ढेर से बने पिरामिड को अपना साम्राज्य समझने वाला,
और
खुद को उसका बादशाह।

उसके चेहरे पर
एक अजीब-सा रोब था।
गहरी, डूबी हुईं भूरी सी आँखें
जैसे किसी भूले हुए इतिहास की छाया हों
और बाल
जैसे किसी रंगरेज़ की लापरवाही।
मूँछें —
आड़ी-तिरछी,
और
दाएँ कान में कांसे की  एक छोटी सी बाली,
पूरा यह दृश्य ऐसा दिखता 
मानो किसी उजड़े हुए साम्राज्य का राजा जो आज भी तख़्त से लिपटा बैठा हुआ है।

लोग कहते —
"पागल है!"
पर उसका यह पागलपन 
एक अलग किस्म की सच्चाई लिए हुए दिखता 
उसकी हँसी?
हँसी नहीं,
बीते हुए युग की
जलती हुई तीखी मशाल लगती 

वह घंटों बड़बड़ाता,
अपनी बातों से
इतिहास की इमारत खड़ी कर देता —
ऐसे बोलता, जैसे
कि वाटरलू की लड़ाई उसी ने लड़ी हो।

गली के लड़के चिढ़ाते —
"ओ नेपोलियन!"
वो पलटता —
युद्ध में घायल एक जख्मी  राजा की तरह,
लेकिन कुछ न कहता,
बस देखता रहता...
और कभी-कभी उस नज़र में कुछ ऐसा होता
कि लड़कों की हँसी
काँप जाती।

फिर
एक रात —
जोर का तूफान आया, बिजली कौंधी,
नेपोलियन कहीं नहीं दिखा।
लोगों ने कहा —
"शायद मर गया होगा..."

आज,
सालों बाद,
एक शवयात्रा गुज़री
चुपचाप, धीमे क़दमों से
लोग ठिठके,
चेहरे को देखा
हैरानी नहीं हुई 
वो नेपोलियन ही था।

आज
नेपोलियन कहीं नहीं है,
पर उसकी कहानी
अब भी
उस गली की साँसों में गूँजती है...

✍️
राजीव कुमार
स. अध्यापक
पू. मा. वि. हाफ़िज़ नगर
क्षेत्र - भटहट
जनपद - गोरखपुर


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