मैं वही सीट हूं
कभी सरकारी बसों की शोभा और लोकतंत्र की प्रतीक रही “विधायक/सांसद हेतु आरक्षित सीट” अब बस के कोने में चुपचाप धूल फांक रही है। बदलते राजनीतिक चाल-ढाल, नेताओं की ज़मीन से आसमान तक की छलांग, और जनता से बढ़ती दूरियों ने इस सीट को महज़ एक खोखला तमगा बना दिया है। इस व्यंग्य में हमने उसी उपेक्षित सीट की जुबानी सुनने की कोशिश की है — उसकी पीड़ा, उसकी तन्हाई और उसकी तल्ख मुस्कान, जो आज के लोकतंत्र के आईने में चुभती भी है और हँसाती भी।
हां, वही, जिस पर कभी विधायक और सांसद बैठते थे।
बस की तीसरी या चौथी पंक्ति में रहती थी मैं, ठीक खिड़की के पास। ऊपर लाल रंग से लिखा रहता था — “सांसद / विधायक हेतु आरक्षित।” गर्व होता था मुझे, क्योंकि मुझ पर बैठने वाले वो लोग होते थे, जिनकी बात संसद और विधानसभा में गूंजती थी।
कभी-कभी नेताजी बस से चलते थे। गर्मी हो या बरसात, पब्लिक के बीच रहना, उनसे सीधे मिलना, यही उनकी पहचान थी। मैं भी खुद को खास समझती थी। जब नेताजी मेरे ऊपर बैठते, तो मैं तन कर खड़ी हो जाती थी। हर बस स्टैंड पर रुकती बस में जब जनता उनसे सवाल पूछती, वो मुस्कुराकर जवाब देते। मैं सोचती — हां, यही है लोकतंत्र।
लेकिन अब...
अब बहुत दिन हो गए हैं नेताजी को देखे।
अब वो एयरकंडीशनर गाड़ियों में चलते हैं। उनके काफिले में फॉर्च्यूनर, इंडेवर, और जाने क्या-क्या गाड़ियां होती हैं। काले शीशे, हॉर्न बजाते पायलट व्हीकल, और सड़क पर सन्नाटा।
अब वो बसों में नहीं चढ़ते, क्योंकि पसीना आ जाता है। अब वो आम आदमी के बीच नहीं बैठते, क्योंकि "इमेज" खराब हो जाती है।
और मैं?
मैं धूल खा रही हूं। मेरी गद्दी में झोल पड़ गया है। ऊपर लिखा “आरक्षित” अब भी है, पर सिर्फ दिखावे के लिए।
कभी-कभी कोई मुसाफिर थककर मुझ पर बैठ जाता है, तो कंडक्टर मौज लेते हुए डांटता है — “ये नेताजी की सीट है, हटो!”
मुसाफिर मुस्कुराकर कहता है — “कौन नेता? वो तो कभी बस में दिखते ही नहीं!”
और मैं चुप हो जाती हूं।
क्या बताऊं उसे कि मैं खुद भी अब समझ नहीं पाती कि मैं आरक्षित हूं या उपेक्षित।
अब मुझ पर बैठा कोई भी नहीं, न सांसद, न विधायक, न लोकतंत्र।
अब नेताजी की बातें सिर्फ भाषणों में होती हैं, पोस्टरों में होती हैं, और सोशल मीडिया के वीडियो में। अब जनता की गंध उन्हें परेशान करती है, और कैमरा की चमक उन्हें आकर्षित।
मैं बस इंतजार कर रही हूं…
कभी कोई नेता दो मिनट के लिए फोटो खिंचवाने आ जाए — मुझ पर बैठे, पसीना पोछे, और कैप्शन लिखे — “जनता के बीच, ज़मीन से जुड़ा नेता।”
पर मैं जानती हूं — अब वो नेता सिर्फ नारों में हैं।
और मैं?
मैं अब भी वहीं हूं — सांसद और विधायक के लिए आरक्षित, पर सच कहूं तो अब किसी के लिए भी नहीं।
✍️ लेखक : प्रवीण त्रिवेदी "दुनाली फतेहपुरी"
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर, आजकल बात कहने के लिए साहित्य उनका नया हथियार बना हुआ है।
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।
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