हर रोज़ दो चेहरों में ढलता है आदमी
यह ग़ज़ल उस मध्यमवर्गीय मानसिकता का आईना है, जो दो छोरों के बीच झूलती रहती है — एक ओर अहंकार, दूसरी ओर दीनता। समाज में जीने की मजबूरी उसे बार-बार मुखौटे पहनने को मजबूर करती है।
हर शेर इस दोहरेपन की परतें खोलता है — जहाँ ईमान, डर, भूख, दिखावा और मजबूरी, सब मिलकर एक ऐसा "आदमी" रचते हैं, जो दिखता कुछ और है, होता कुछ और।
यह ग़ज़ल प्रश्न नहीं उठाती, बल्कि आईना दिखाती है — और कहती है:
हर रोज़ दो चेहरों में ढलता है आदमी
बड़ों के आगे झुक के पलता है आदमी,
छोटों पे लेकिन ज़ोर करता है आदमी।
सच की क़सम खा के भी चुप रहता सदा,
झूठों का चेहरा रोज़ धरता है आदमी।
ईमान को काग़ज़ समझ कर फाड़ दे,
जब मुफ़लिसी में भूख सहता है आदमी।
उम्मीद, डर, छल, गर्व, क्रोधों का घनक,
सारे विरोधों में ही पलता है आदमी।
जो काम कर दे एक सच्चा लोहे सा,
वो काम सोचों में ही मलता है आदमी।
प्रवीण कहता है, न हँसता है न रोता है,
हर रोज़ दो चेहरों में ढलता है आदमी।
✍️ शायर : प्रवीण त्रिवेदी "दुनाली फतेहपुरी"
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर, आजकल बात कहने के लिए साहित्य उनका नया हथियार बना हुआ है।
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।
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