जनरल बोगी का सफ़र
अगर आपके दिल में कुछ दिलचस्प, रोमांचक, अजीबोग़रीब और ख़तरनाक तजुर्बा करने की तमन्ना हो तो आप भारतीय रेल का सफ़र कीजिये..... ख़ास तौर से जनरल बोगी का सफ़र। लोग कहते हैं कि आला दर्ज़े के विद्वान और बुद्धिजीवी बड़ी-बड़ी सेमिनारों, बैठकों और सम्मेलनों में पाए जाते हैं लेकिन मुझे लगता है रेल के डिब्बों में आकर देखिये, आपको विभिन्न विधाओं के एक से बढ़कर एक मनीषियों के दर्शन सुलभ होंगे, ऐसे कि आप हतप्रभ रह जायेंगे.... भारतीय रेल के सफ़र में ऐसे-ऐसे अनुभव होंगे कि हर्ष, आह्लाद, दुःख, पीड़ा और भयंकर क्रोध जैसे मनोभाव एक साथ आपके ऊपर आक्रमण कर देंगे।
संयोग से अभी हाल ही में रेलगाड़ी में सफ़र का अवसर मिला, रात की ट्रेन से किसी काम से बनारस जाना था, टिकट लेकर प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँचा तो वहाँ का मंज़र देखकर मुझे झटका लगा, प्लेटफार्म पर ठीक से खड़े होने की जगह भी नहीं थी, मैंने इतनी भीड़ का सबब जानना चाहा तो किसी ने बताया कि कल रेलवे भर्ती परीक्षा है और यह नौजवान उसी परीक्षा के अभ्यर्थी हैं जो इलाहाबाद जाने के इच्छुक हैं, जानकर थोड़ी ख़ुशी हुई कि यह लोग मेरी ट्रेन के तलबगार नहीं हैं बल्कि किसी और ट्रेन के ग्राहक हैं। उनकी ट्रेन का समय था रात 10:30 लेकिन वह विलम्ब के साथ क़रीब 11:10 पर आई, मैं सोच रहा था कि इस ट्रेन में इतने लोग कैसे सवार होंगे, लेकिन ट्रेन के आते ही ऐसी भगदड़ मची कि चंद मिनटों में ही ट्रेन उनको ऐसे सोख गई जैसे स्पंज पानी सोख लेता है।
मेरी ट्रेन भी कुछ विलम्ब के साथ आई और जनरल बोगी के दरवाज़े पर अपना पूरा पराक्रम दिखाकर भी बड़ी मुश्किल से अन्दर प्रविष्ट हो सका। पूरी फुर्ती दिखाने के बावजूद ट्रेन में सीट नहीं मिल सकी, कुछ लोग सीट पर इस तरह लेटे हुए थे जैसे किसी सरकारी अस्पताल में मुफ़्त इलाज कराने आये हों, मैंने थोड़ी सख्ती दिखाकर सीट पर रखी एक गठरी को हटाने की कोशिश की तो ऊनी चादर में लिपटी उस गठरी के अन्दर से बूढ़ी सी दिखने वाली एक महिला का मुँह निकला और बोला ''भईया कमर मा बहुत दरद है, बैइठै मा बड़ी दिक्कत बा''..... , मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किये बिना वह जनाना मुँह उसी गठरी में कहीं ग़ायब हो गया लेकिन उसकी तीमारदारी में तैनात शख्श, भोजपुरिया टोन में बोला- अरे भईया कहीं बैठ लीजिये... मैंने इधर-उधर देखा और पाया कि अगर सूक्ष्मदर्शी से भी देखा जाये तो शायद ही वहाँ कहीं जगह दिखे... लेकिन मैं उस वक़्त किसी तरह की बहसबाज़ी करने के मूड में नहीं था इसलिए मजबूरन ऊपर की बर्थ पर बैठे एक यात्री का हमसफ़र बन गया। रात बड़ी मुश्किल से बैठे,अधलेटे कटी लेकिन मेरे और दूसरे कम्पार्टमेंट में बैठे सहयात्रियों के सौजन्य से श्रृंगार रस से सराबोर भोजपुरी गानों का लुत्फ़ पूरी रात उनके मोबाइल के माध्यम से मिलता रहा।
अपना काम निपटाकर सुबह दस बजे वापसी के लिए पुनः वाराणसी स्टेशन आ पहुँचे.... बेहतरीन एल.ई.डी. सूचना पट्ट ने बताया कि 10:20 पर आने वाली दून एक्सप्रेस सही समय पर आने वाली है, मन में ख़ुशी के गुदगुदाते एहसास लिए मैं प्लेटफोर्म की ओर बढ़ चला, लेकिन मेरी यह ख़ुशी ज़्यादा देर न ठहर सकी, प्लेटफोर्म पर आकर पता चला कि सूचना पट्ट ने मुझे बेवकूफ़ बना दिया है, बड़े इंतज़ार के बाद वहाँ के फटेले स्पीकर से किसी महिला ने बड़ी मीठी आवाज़ में क्षमा माँगते हुए बताया कि आने वाली ट्रेन के आधा घन्टा विलम्ब से आने की सम्भावना है, मैंने उसे क्षमा तो दी ही साथ में रेलवे तक पहुँचाने के लिए कुछ उपाधियाँ और अलंकरण भी प्रदान किये।
बुझे मन से... इधर-उधर नज़र दौड़ाई कि कहीं कोई बैठने की जगह दिख जाये लेकिन कहीं कोई ख़ाली कुर्सी नहीं दिखी। तभी प्लेटफ़ार्म के एक कोने में ग्रेनाइट की एक लम्बी सी बेंच नज़र आई जिसपर थोड़े प्रयास के बाद बैठने की गुंजाइश बन सकती थी। बेंच के निकट पहुँचा तो देखा कि किनारे की ओर रंगीन चादर में ढकी कोई वस्तु बेंच पर पड़ी है, मैं उसी के पास जगह बनाकर बैठ गया, तभी मैंने देखा मुझसे परे वाले छोर पर उस वस्तु से धुआं निकल रहा है, मैं चौंक पड़ा और किसी संभावित ख़तरे से घबराकर बारीकी से मुआयना करने लगा.... ध्यान से पड़ताल करने पर सिर्फ़ इतना जान पाया कि चादर के अन्दर कोई जीवित वस्तु है जो धूम्रपान का लुत्फ़ उठा रही है.... धुआं निकलना बंद होने के कुछ देर बाद चादर हटी और वह वस्तु सामने नमूदार हो गई..... वह 24-25 वर्ष की सलवार-कुर्ताधारी युवती थी।
मेरे सामने की ओर प्लेटफ़ॉर्म (ज़मीन) पर कुछ तीर्थयात्री, चादर आदि बिछाकर बैठे हुए थे। मेरी बाईं ओर एक बड़े आकार की भद्र महिला बैठी हुई थी। उसके आगे उनकी,उनसे बड़े आकार की अटैची रखी हुई थी जिसके आगे एक अभद्र गाय फ़र्श पर पड़े, भद्र जनों द्वारा फेंके गए केले के छिलके खा रही थी, अभद्र गाय इसलिए क्योंकि उसने बिना किसी चेतावनी मूत्र-विसर्जन करना प्रारंभ कर दिया, मेरे पड़ोस में बैठी महिला अपनी अटैची बचाने की पुरज़ोर कोशिश करते हुए पास में खड़े पतिदेव की ओर देख डांटने वाले अंदाज़ में चीखी, सहमकर पतिदेव ने फ़ौरन पोजीशन ले ली, नतीजन पति-पत्नी के संयुक्त प्रयास से अटैची लगभग सफलतापूर्वक बचा ली गई।
प्लेटफार्म की फ़र्श का ढाल पटरियों की ओर था इसलिए गोमूत्र का विक्षुब्ध प्रवाह फ़र्श पर बैठे तीर्थयात्रियों की ओर बढ़ चला..... जिसे देखकर, गोमूत्र को ''अमृत तुल्य'' बताने वाले लोगों में ऐसा हड़कम्प मचा जैसे गाय की ओर से सूनामी आ रही हो। उन्ही के बीच के एक बहादुर व्यक्ति ने मूत्र प्रवाह के मार्ग में अपने जूते का बाँध बना दिया ताकि लोगों को आपदा-प्रबंधन का समय मिल सके। इसी बीच 'रेस्क्यू आपरेशन' को गति प्रदान करने के उद्देश्य से एक वालंटियर ने गाय की पूँछ को मरोड़ कर ऐसा खदेड़ा कि वो एक तरफ़ बैठी भीड़ पर ही फांद पड़ी, अब हड़कम्प की दिशा बदल गई थी लेकिन न मालूम यह उस गाय की चतुराई थी या उन तीर्थयात्रियों के पुण्य-प्रताप का असर कि किसी को चोट नहीं आई।
बुरी तरह पूँछ मरोड़े जाने की ज़्यादती को गाय ने गाय की ही तरह सहज भाव से स्वीकार कर लिया। शायद उसे अपने जघन्य अपराध का एहसास हो गया था इसलिए उसने कहीं कोई शिकायत नहीं दर्ज़ कराई और फ़ौरन से पेश्तर इस घटना को भुलाकर कूड़े के एक नए ढेर में भोजन की संभावनाओं पर अपना दिमाग़ केन्द्रित किया।
मैंने जेब से मोबाइल निकालकर समय देखा, ट्रेन आने में उद्घोषिका द्वारा घोषित संभावित विलम्ब की मियाद पूरी हो चुकी थी। ऐसी स्थिति में ट्रेन आने के सम्बन्ध में किसी नई घोषणा की प्रबल सम्भावना थी। मैंने सोचा कहीं ऐसा न हो कि रेलवे अपनी प्रतिष्ठा के अनुसार काम करे और ऐन वक़्त पर प्लेटफ़ॉर्म बदलने की राजाज्ञा जारी कर दे,... इसलिए घोषणाओं पर कान लगाये रखना बहुत ज़रूरी हो गया।
मैं जहाँ पर बैठा था वहाँ से प्लेटफ़ॉर्म के कोलाहल में फटेले स्पीकर की अस्पष्ट आवाज़ और भी अस्पष्ट सुनाई पड़ रही थी अतः मैं उस स्थान से उठकर स्पीकर के निकट जाकर खड़ा हो गया और बैठने का कोई नया ठिकाना ढूँढने लगा। बैठने की कहीं कोई उचित सम्भावना न देख मैं वहीं फ़र्श पर अखबार बिछा कर बैठ गया। तभी पकी उम्र का एक व्यक्ति मेरे पड़ोस में अपना बैग रखकर उसी पर बैठ गया जिसकी ज़ुल्फ़ों को कुछ इस तरह काटा गया था कि कम से कम ज़ुल्फ़ों से किसी फ़िल्मी हीरो की तरह नज़र आने लगे। उसके हाथ में अखबार में लिपटा फूलों का एक गुलदस्ता था।
गुटखे की एक पीक के साथ बातचीत का क्रम उसी ने शुरू किया- भाई साब, आप भी दून एक्सप्रेस का इंतज़ार कर रहे हैं?
मैंने कहा- हाँ!
- मैं भी उसी का इंतज़ार कर रहा हूँ, मुझे एक शादी में जाना है, आज इस ट्रेन की देरी ने मेरा सारा प्रोग्राम गड़बड़ा दिया, दिन की शादी में जा रहा हूँ,पता नहीं वक़्त पर पहुँच पाउँगा या नहीं।
मैं उसके द्वारा दी जाने वाली जानकारी में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखा रहा था फ़िर भी उसने अपने बुलेटिन का प्रसारण जारी रखा।
अब उसने अगला सवाल पूछा- भाई साब, आप कहाँ जा रहे हैं???
अचानक मेरे कान खड़े हो गए,मैं चौकन्ना हो गया। अख़बारों की तमाम सुर्ख़ियाँ, रेलवे और तमाम जगह लिखे श्लोगन और चेतावनियाँ एकाएक मेरे दिमाग़ में कौंध गईं-
" यात्रा के दौरान किसी अपरिचित व्यक्ति से मेलजोल न बढ़ाएं, वह ज़हरखुरान हो सकता है''
फ़िर भी मैंने अपने मन के भाव छिपाते हुए उसे बताया- लखनऊ जा रहा हूँ।
उसने कहा- अच्छा! तो आप लखनऊ के रहने वाले हैं। यहाँ बनारस किसी काम से आये थे?
मैंने कहा- हाँ, किसी काम से ही आया था। मैं सोच रहा था कहीं यह शख्श मुझे चाय और ज़हरीले बिस्किट न ऑफर कर दे लेकिन उसने ऐसा कोई शिष्टाचार नहीं दिखाया।
इसी बीच स्पीकर से उद्घोषिका का मधुर स्वर पुनः गूँजा कि विलम्ब से चलने वाली अमृतसर हावड़ा एक्सप्रेस के आने का संकेत हो गया है।
इस ट्रेन के आने का निर्धारित समय सुबह के 08:30 पर था जो विलम्ब के साथ लगभग 11:10 पर आने वाली थी। पहली बार किसी ट्रेन के विलम्ब से आने पर मुझे ख़ुशी हुई। लेकिन जिसका मैं इंतज़ार कर रहा था,10:20 पर आने वाली दून एक्सप्रेस के सम्बन्ध में पूर्व घोषित आधे घण्टे विलम्ब की मियाद बीत जाने के बावजूद कोई घोषणा नहीं सुनने को मिली।
तभी उस शख्श ने कहा- लीजिये, आपका काम तो हो गया।
मैंने उठते हुए मुस्कुराकर कहा- लग तो ऐसा ही रहा है, मैं उसके चेहरे और उसकी प्रतिक्रिया देखे बिना पटरियों की ओर चल पड़ा लेकिन जाने से पहले उस बेंच की ओर ज़रूर देखा जहाँ सिगरेट पीने वाली वह युवती बैठी थी, युवती वहां से जा चुकी थी।
मेरा ध्यान पटरियों के उस छोर की तरफ़ था जिधर से गाड़ी आने की सम्भावना थी। ज़्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा, सचमुच गाड़ी आ ही गई। यात्रियों का रेला गाड़ी की ओर दौड़ा, एक डिब्बे के दरवाज़े पर मैं भी झुण्ड में शामिल हो गया। उतरने वाले और चढ़ने वाले यात्रियों में संघर्ष होने लगा। बाएं हाथ में दरवाज़े का हैंडल और दायें हाथ से अपने बटुवे को महसूस करते हुए किसी तरह मैं डिब्बे में दाख़िल हो गया। दाख़िल होते ही निकटतम कम्पार्टमेंट को बिजली की सी तेज़ी से स्कैन किया, बैठने की कहीं गुंजाईश न देख फ़ौरन आगे बढ़ चला। अगले कम्पार्टमेंट में सामने की ओर लम्बी सीट पर किनारे ज़रा सी जगह देख तुरन्त अपने आपको वहां टिका दिया।
कुछ क्षणों में ख़ुद को ठीक से व्यवस्थित कर लेने के बाद कम्पार्टमेंट में नज़र दौड़ाई, अभी भी यात्री आ रहे थे, कुछ ऊपर की बर्थ पर चढ़ गए, कुछ अपना सामान व्यवस्थित कर रहे थे। सामने वाली सीट पर चार लोग बैठे हुए थे, खिड़की के निकट एक बुज़ुर्ग व्यक्ति बैठे थे, उनके पड़ोस में 20-22 वर्ष का नौजवान और दो अन्य व्यक्ति। सामने ऊपर की बर्थ पर दो लोग बैठे हुए थे। मेरी सीट पर खिड़की की ओर लगभग 9 वर्ष का एक बालक लेटा हुआ था, उसके बग़ल में ठेठ ग्रामीण सी दिखने वाली महिला बैठी हुई थी, जो उस लेटे हुए बच्चे की माँ थी..... महिला की गोद में 5-6 वय का एक बच्चा था, कालांतर में ज्ञात हुआ कि उस महिला की शाखाएं ऊपर की बर्थ तक फैली हुई हैं यानी ऊपर बर्थ पर लगभग 14 वर्ष का उसका लड़का लेटा हुआ था। उस महिला के बाद एक और उम्रदराज़ महिला और फिर मैं। मेरे सामने की ओर एकल सीट पर फटे हुए मैले कपड़ों में लिपटी बेहद ग़रीब सी दिखने वाली लगभग 50 वय की महिला बैठी हुई थी जिसकी गोद में अधबैठी मुद्रा में लगभग 10 वर्ष अवस्था की उसकी लड़की थी, लड़की के बाल सुनहरे भूरे थे जो प्राकृतिक नहीं बल्कि उचित रखरखाव और पोषण के अभाव में वैसे हो गए थे लेकिन माँ बेटी की यह जोड़ी बिना किसी मिलावट, प्राकृतिक रूप से गहरे श्याम वर्ण की थी। मेरे पड़ोस की एकल सीट पर एक सामान्य वेशभूषा का व्यक्ति बैठा हुआ था।
कबाड़ से बटोरी गई ब्रांडेड पानी की बोतलों में बिना ब्राण्ड का पानी भरकर उसे नीले टेप से सील की गई 3-4 बोतलों के साथ एक बन्दा आया और मात्र दस रुपये में लेने की फ़रमाइश करने लगा, ग़रीब महिला ने उसकी फ़रमाइश मान ली और एक बोतल ख़रीद ली। कुछ और लोगों ने ख़ुशी-ख़ुशी ऐसा ही किया। ग़रीब महिला ने पकौड़े वाले से पकौड़े लेकर बेटी को दे दिया।
तभी अचानक क्रोध की मुद्रा में 'रेडीमेड' तनी हुई भृकुटियों के साथ अधेड़ उम्र के एक शख़्श मेरे कम्पार्टमेंट में प्रविष्ट हुए, वे इस सिद्धांत का पालन करते दिखे कि यात्रा के दौरान ज़्यादा सभ्य और शालीन बर्ताव करने से सुखद यात्रा के हित प्रभावित होते हैं इसलिए वे क्रोधित दिखने का होमवर्क घर से कर के लाये थे और अपनी ख़तरनाक भंगिमा को और अधिक मज़बूती प्रदान करने के लिए उन्होंने अपने निचले होंठ को ऊपर के दाँतों पर चढ़ा लिया था। उनके आने पर कोई खड़ा नहीं हुआ न ही किसी ने स्वागत में तालियाँ बजाईं, इससे उनका पारा और चढ़ गया। मेरे सामने वाली सीट पर बैठे लोगों से कड़क आवाज़ में पूर्वांचल टोन में बोले- ''अरे जरा खिसको न..... कैसे फैल के बैठे हैं...... इस सीट पर 6-7 सवारियां बैठती हैं।''
पूर्वांचल टोन में बोलने के अपने फ़ायदे हैं, क्षेत्रीय लोग आत्मीयता की नज़र से देखते हैं और जो उस क्षेत्र के नहीं हैं वे सहमकर 50 ग्राम अतिरिक्त सम्मान प्रदान करते हैं इस प्रकार दोनों ही स्थितियों में काम बन जाता है नतीजन उनका भी काम बन गया, उन्हें सीट मिल गई। मैंने लखनऊ में लोगों को दूसरों पर रौब गाँठने के लिए पूर्वांचल टोन में बात करने का अभिनय करते देखा है।
बाक़ायदा मैले-कुचैले कपड़ों में, चेहरे पर दीनता का मज़बूत अभिनय चिपकाए और गुटखे से अच्छी तरह पेंट किए हुए दाँतों के साथ कुछ लड़खड़ाते क़दमों से एक व्यक्ति आया। उसने अपनी व्यक्तिगत जानकारी का सार्वजनिक ख़ुलासा किया कि वह दोनों पैरों से विकलांग है इसलिए समाज का दायित्व है कि उसकी सहायता करे लेकिन उसका ज़मीर किसी तरह की मदद लेने को तैयार नहीं है सिवाय आर्थिक मदद के। अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए उसने लैमिनेटेड काग़ज़ का प्रमाणपत्र भी प्रस्तुत किया। मैंने कहा- ''ये फंडे पुराने हो चुके हैं, कोई नया फ़ार्मूला लाओ।''
............... उसने मेरी बात को उसी तरह अनसुना कर दिया जैसे सरकारी हाक़िम, वजह-बेवजह रिरियाने वाले फ़रियादियों की आवाज़ को अनसुना कर देते हैं। उस ''विकलांग'' व्यक्ति ने अपना आशीर्वाद देने के लिए गोद में बच्चा लिए ग्रामीण महिला को सबसे सुपात्र समझा और बोला- तुम्हारा बेटा जिए, खूब तरक्की करै... कलट्टर बनै। अंग्रेज़ी टाइप का कोई शब्द सुनकर महिला बहुत प्रभावित हुई, उसे यक़ीन हो गया की अंग्रेज़ी दवा की तरह यह दुआ भी काम करेगी, उसने झट दो रूपए का सिक्का निकाल कर पकड़ा दिया। डील पूरी हो गई, कलेक्टर बनने की दुआ ख़रीद ली गई। डिब्बे में बैठे कुछ लोगों ने इस तरह की किसी डील में न उलझकर विशुद्ध चैरिटी के उद्देश्य से उसे कुछ सिक्के थमा दिए। इसी बीच गाड़ी चल पड़ी, और वह मेरे कम्पार्टमेंट से निकल गया, मैंने देखा ''दोनों पैरों से विकलांग'' वह व्यक्ति चलती ट्रेन से उतरकर कहीं ग़ायब हो गया।
कुछ नए यात्री आये और ग्रामीण महिला से लेटे हुए बेटे को उठाने की गुज़ारिश की, महिला ने पिछली रात का इतिहास बताया कि बच्चा कल रात भर जागा है इसलिए उसका आराम से सोना बहुत ज़रूरी है लिहाज़ा उसे उठाया जाना मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन होगा, क़ानून की हद में रहने वाले 'सामान्य' लोगों ने क़ानून तोड़ना उचित नहीं समझा, बच्चा लेटा रहा।
सामने बैठे (क्रोधी) महोदय की तनी हुई भृकुटियाँ अभी भी सीधी नहीं हुई थीं, मतलब यह कि अभी भी वे कुछ असहज महसूस कर रहे थे, उन्होंने इधर- उधर नज़र दौड़ाई और उन्हें जल्द ही इसका कारण मिल गया। लगभग डाँटते हुए बोले- अरे पंखा किसने बंद कर दिया। ( जबकि मैंने देखा था पंखा पहले से ही बंद था), खिड़की के पास बैठे बुज़ुर्ग महोदय बोले - पंखा बंद रहने दीजिये, इतनी ज़्यादा गर्मी नहीं है, अपनी बात के लिए नैतिक समर्थन की उम्मीद में सामने बैठी ग्रामीण महिला से आँखें मिलाते हुए उन्होंने कहा- छोटे-छोटे बच्चे हैं सर्दी लग जाएगी। अब बात बहुमत की आ गई। सामने वाले व्यक्ति ने समर्थन जुटाने के लिए मुझसे कहा- क्यों आपको गर्मी नहीं लग रही? उस 'भद्र पुरुष' के मुँह से अपने लिए ''आपको'' सुनकर बड़ी सुखद अनुभूति हुई इसलिए मैंने उनको समर्थन दे दिया, महोदय को अपने ग़ुस्सैल स्वभाव का एक एक्स्ट्रा प्वाइंट मिला..... पंखा चला दिया गया।
किसी स्टेशन पर ट्रेन रुकी। कुछ नए यात्रियों का आगमन हुआ, एक यात्री ने पूरे आत्मविश्वास के साथ 2-3 भारी बोरियां मेरे और सामने वाली बेंच के बीच ठूंस दीं.... सभी ने जनरल बोगी के शिष्टाचार के तहत कोई प्रतिकार नहीं किया। अब उस व्यक्ति ने काफी सख़्ती के साथ उस ग्रामीण महिला से अपना बच्चा उठा लेने आदेश दिया लेकिन उस वीरांगना ने मोर्चा ले लिया बड़ी देर तक झाँय-झाँय हुई लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला.... बच्चा लेटा रहा। मजबूर होकर उस व्यक्ति ने अपने साथ की दो बच्चियों को उन्हीं बोरियों पर बैठा दिया। भारतीय महिला को अबला समझने वालों के लिए यह ''ग्रामीण महिला'' ज़बरदस्त चुनौती पेश कर रही थी।
एकल सीट पर बैठी ग़रीब महिला ने एक फेरी वाले से उबले चने ख़रीद कर अपनी बेटी को दिए।
कोने पर बैठे बुज़ुर्ग ने महिला के बच्चों के हित की बात की थी इसलिए इसे ग्रामीण महिला से बात करने का आधार मानकर बातचीत शुरू कर दी और उसके अकेले यात्रा करने का सबब जानना चाहा। महिला ने बुज़ुर्ग की उम्र का लिहाज़ करते हुए सब विस्तार से बताया और साथ में यह भी बताया कि ईश्वर के भरोसे वह पहली बार बच्चों के साथ अकेले यात्रा कर रही है। बुज़ुर्ग महोदय को अध्यात्म-दर्शन के प्रवचन सुनाने का बढ़िया मौक़ा मिल गया। उन्होंने निःशुल्क ज्ञान वितरण शुरू किया उन्होंने बताया- ''ईश्वर बड़ा दयालु है, वही सबको देखता है और वही तुमको भी देखेगा। सब अच्छा होगा'' अपनी बात को उन्होंने सभी को सुनाने के लिए 2-3 बार दोहराया। जब कुछ लोगों ने सिर हिलाकर सहमति जताई तब उनके कलेजे को ठंडक पहुँची। बुज़ुर्ग के मुँह से अध्यात्म/दर्शन की बातें सुनकर मुझे लगा कि वे शत-प्रतिशत सामान्य बुज़ुर्ग हैं लेकिन वे उतने बुज़ुर्ग थे नहीं जितना दिखने की कोशिश कर रहे थे।
अचानक मेरी नज़र रुके हुए पंखों पर पड़ी, सामने वाले (क्रोधी) सज्जन को देखते हुए मैंने कहा- लग रहा है बिजली चली गई। उनका ध्यान बंद पंखों पर गया, उनकी भृकुटियाँ जो कुछ-कुछ सीधी हो चुकी थीं, पुनः तन गईं, निचला होंठ पुनः ऊपरी दाँतों पर आ गया..... भड़कते हुए बोले पंखा किसने बंद किया? इस जुर्म को स्वीकारने की किसी ने हिम्मत नहीं दिखाई। ऊपर बैठे एक व्यक्ति ने सिर्फ़ इतना कहा- अरे! भाई साहब बंद रहने दीजिये।............ गुनाहगार पकड़ में आ गया। सामने वाले सज्जन खड़े हो गए, फड़कते नथुनों के साथ बोले- वहाँ बरफ़ पड़ रही है का? ऊपर की सीट पर तो पंखवा की हवा भी नहीं लगती। ऊपर वाला व्यक्ति चुप ही रहा। महोदय ने उसे घूरते हुए स्वयं पंखा चलाया और पुनः अपनी जगह पर स्थापित हो गए।
किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी। फेरी वालों की एक टीम डिब्बे में आ घुसी जिसमे चाय, समोसा, कच्चे चने, उबले चने, मूंगफली आदि उत्पाद बेचने वाले शामिल थे। सामने बैठे एक सज्जन, जिनके हाथ में यात्रा के प्रारंभ से पेट्रोलियम जेली की एक छोटी सी शीशी थी, जिसमें से पेट्रोलियम जेली निकालकर वे 20-25 मिनट के नियमित अंतराल पर अपने होठों पर रगड़ देते थे। पहली बार उन्होंने वह शीशी जेब में रख, 100 ग्राम मूँगफली ख़रीदी।
मेरे पड़ोस की ग्रामीण महिला ने 5 रूपए की मूँगफली माँगी, मूँगफली वाले ने बिना तौले थोड़ी सी मूँगफली दे दी। महिला बोली- 5 रूपए में इत्ती सी मूँगफली? अब विक्रेता ने मूँगफली व्यापार का पूरा अर्थशास्त्र उसे समझाते हुए बताया कि बड़ी महँगाई है, मूँगफली 480 रूपए पसेरी है, फ़िर भाड़ा, मज़दूरी आदि, 12 रूपए की 100 ग्राम है। महिला अर्थशास्त्र समझने के मूड में नहीं थी, एक रूपया और बढ़ाते हुए कहा- अच्छा 50 ग्राम दे दो। विक्रेता ने कहा 50 ग्राम का बाँट नहीं है। व्यावहारिक समस्या खड़ी हो गई, ग्रामीण महिला पुनः वीरांगना मोड में आ गई, घबराकर मूँगफली वाले ने बिना एक रूपया लिए कुछ मूँगफली उसके हाथ में रखकर अपना पीछा छुड़ाया। लेटा हुआ बच्चा मूँगफली खाने की मजबूरी के कारण उठा, मूँगफली खाकर फ़िर से लेट रहा।
एकल सीट वाली ग़रीब महिला ने समोसे ख़रीद कर बेटी को पकड़ा दिए।
कुछ नए यात्री आये। एक नवयुवक ने नीचे बैठने की जगह न देख, जूते पहने हुए ऊपर चढ़ने लगा। नीचे के कुछ यात्रियों ने आपत्ति जताई लेकिन उसने उन आपत्तियों का कोई निस्तारण नहीं किया, उसने सिर्फ़ इतना किया कि ऊपर बैठकर बड़े प्रेम से जूते उतारकर चलते हुए पंखे के ऊपर रख दिया। जूते की थोड़ी सी धूल नीचे गिरी फ़िर माहौल सामान्य हो गया। डिब्बे की बीच की गली, खड़े हुए यात्रियों, बोरियों और सामान से भर गई थी। गाड़ी चल पड़ी।
अब मेरे दिमाग़ में नहीं बल्कि शरीर में एक छोटी सी शंका उत्पन्न हुई जिसका समाधान बीतते समय के साथ ज़रूरी हो गया। मैंने खड़े होते हुए, सीट पर क़ब्ज़ा बरक़रार रखने के उद्देश्य से अपने ''अंतरिम उत्तराधिकारी'' के रूप में अपना बैग सीट पर रख दिया। बुज़ुर्ग महोदय से प्राप्त ताज़ा ज्ञान के आधार मैंने मान लिया कि भगवान बड़ा दयालु है और सबको देखता है। मैंने सोचा कि भगवान जब सबको देख रहा होगा तो उसे मेरा बैग भी ज़रूर दिखाई पड़ेगा और दयालु होने के कारण मेरे लौटने तक मेरा बैग ताके रहेगा। इसी भरोसे पर अपना बैग अकेला छोड़ मैं चल दिया।
विभिन्न पर्वत-पहाड़, दर्रे पार करके बमुश्किल मैं शौचालय तक पहुँचा। दोनों शौचालयों के बीच का स्थान पान/गुटखा थूकने के लिए आरक्षित होने के बावजूद लोगों ने वाश बेसिन पर भी अपना दावा जताते हुए उसमे थोक में थूक रखा था लेकिन अल्पसंख्यक लोग अभी भी संघर्ष कर रहे थे और क़ब्ज़ा न छोड़ने के संकल्प के साथ उसमे हाथ धो रहे थे, कुल्ला कर रहे थे।
मैंने आगे बढ़कर एक शौचालय का दरवाज़ा खोला। भीतर का विहंगम दृश्य बड़ा अकल्पनीय था। कुछ लोगों ने दरवाज़े की ओर मुँह करके शौचालय का प्रयोग कर लिया था। इस युक्ति से पानी की बचत के साथ पटरियाँ गन्दी होने से बच गई थीं साथ ही किसी और के शौचालय को गन्दा करने की संभावनाएं समाप्त हो गई थीं। मैंने सामने के दूसरे शौचालय का दरवाज़ा खोला, अन्दर प्रविष्ट हुआ। शिक्षा, शिक्षण, अध्ययन में रूचि रखने वालों के लिए यह रुचिपूर्ण जगह थी। कक्ष की दीवारें दूरस्थ शिक्षा के सचल अध्ययन केंद्र के श्यामपट्ट सी नज़र आईं। जीवविज्ञान का पाठ्यक्रम अत्यन्त रोचक ढंग से पढ़ाया गया था। किसी विद्वान शिक्षक ने निःस्वार्थ भाव से, निःशुल्क और पूर्ण रूप से 'जनहित' में मानव शरीर के महत्वपूर्ण अंगों का नामकरण के साथ सचित्र वर्णन किया था। चित्रों में नर और मादा मानव अंगों की सचित्र क्रियाविधि विस्तारपूर्वक वर्णित की गई थी। वहीं पास में कुछ मोबाइल नम्बर लिखे हुए थे, ये संभवतः उन प्रयोगशालाओं के नम्बर थे जहाँ उपरोक्त पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित प्रयोग करने की सशुल्क सुविधा उपलब्ध होगी।
शंका समाधान के उपरान्त जीवविज्ञान के ज्ञान से लैस होकर बाहर आया तो मन में बस यही ख़याल आया कि सरकार को जल्द से जल्द एक संविधान संशोधन बिल पास कराकर सज़ायाफ्ता मुजरिमों के लिए एक नई सज़ा का प्राविधान करना चाहिए जिसमे सज़ा के तौर पर मुजरिमों को जनरल बोगी के शौचालय का प्रयोग करने का आदेश सुनाया जाए।
लौटकर देखा, सबको देखने वाले दयालु भगवान ने मेरा बैग भी देखे रखा था, बैग सही सलामत अपनी जगह पर था। मेरा काम निकल चुका था इसलिए मैंने उसे '' अंतरिम उत्तराधिकारी'' के पद से पदच्युत कर दिया।
गाड़ी फ़िर अपनी आदत के अनुसार किसी स्टेशन पर रुकी, फेरी वाले फिर अपनी आदत के अनुसार डिब्बे में घुस आये। पड़ोस की ग्रामीण महिला ने मिट्टी के कुल्हड़ में एक चाय ली। संयोग से कुल्हड़ गोद में बैठे बच्चे को स्पर्श कर गया, बच्चा थोड़ा सा उछल पड़ा, आधी से ज़्यादा चाय नीचे गिर गई। महिला को चाय गिरने का अफ़सोस नहीं हुआ, उसे चाय अपनी चप्पल पर गिरने का अफ़सोस हुआ। फ़िर चप्पलों की सफ़ाई की गई।
एक नौजवान फेरी वाला अमरूद बेचने आया। विज्ञापन के चरण में उसने एक महत्वपूर्ण जानकारी दी, बताया- '' अमरूद डाल वाले हैं'' ..... एकल सीट वाली ग़रीब महिला ने 'डाल वाले अमरूद' लेकर बेटी को दिए।
गाड़ी चल चुकी थी, पीछे के कम्पार्टमेंट से गेरुवे वस्त्र और लम्बी दाढ़ी धारण किये एक व्यक्ति बीन बजाता हुआ प्रकट हुआ। 'जय भोले', 'जय शिव शंकर', 'भोले बाबा के दर्शन' जैसे उद्घोष करता हुआ हाथ में पकड़ी डलिया उसने मेरे मुँह के पास खोल दी। मैंने डलिया में भोले बाबा को ढूँढने की भरसक कोशिश की लेकिन मुझे उसमे भोले बाबा कहीं नज़र नहीं आये। उसमे एक नाग दुम दबाये बैठा था। मेरी सुविधा के लिए उसने डलिया को मेरे काफी क़रीब कर दिया, इतना कि डलिया मेरी नाक को छू गई, मैंने कहा- दूर करो इसे, तुम तो मुँह में घुसेड़े दे रहे हो। इसकी जान जा रही है तुम्हें भोले बाबा सूझ रहे हैं। डलिया दूर हटा ली गई। कुछ लोगों को भोले बाबा के दर्शन हो गए, मानदेय स्वरुप कुछ सिक्के दे दिए गए। फ़िर उस सपेरे ने बीच की गली में कुछ जगह बनाकर अपना शो शुरू कर दिया, बीन की चिर-परिचित धुन बजाते हुए सपेरा, साँप के सिर पर थपकी मार-मार कर उसके सामने मुट्ठी नचाने लगा, बेचारा साँप बिना दाँत के पोपले मुँह के साथ अपना फन फैलाकर अपनी ड्यूटी बजाने लगा। सपेरे के चले जाने के बाद मैंने सोचा ज्ञान बघारने का बढ़िया मौक़ा है। मैंने बताया- वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के अनुसार इस तरह किसी वन्य जीव को पकड़ना, क़ैद रखना ग़ैरक़ानूनी है। इस व्यक्ति को पुलिस पकड़ सकती है और सज़ा भी हो सकती है। इस जानकारी को सुनकर किसी ने कोई प्रशस्ति नहीं दी, कुछ ने सिर हिलाया, एक ने सिर्फ़ इतना कहा- ‘’यह इण्डिया है ''
किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी, शायद सुल्तानपुर था। कुछ सवारियाँ चढ़ीं कुछ उतरी।
एकल सीट की ग़रीब औरत की बेटी को अब कुछ भूख लगी थी शायद। माँ ने दो डिब्बे पूड़ी सब्ज़ी ख़रीद एक बेटी को दे दिया।ट्रेन ने गति पकड़ ली।
एक 22-24 वर्षीय नौजवान आया। जींस-टीशर्ट, दोनों कानों में एक तार से जुड़े डाट ठूँसे हुए। निश्चित रूप से तार का दूसरा सिरा किसी मोबाइल में ही घुसा हुआ होगा। सामने बैठे ग़ुस्सैल शख़्श को देखकर, उनके पड़ोस में बैठे नौजवान से बोला- माता जी को बिठा लो…… मैं अपने लिए नहीं कह रहा हूँ... यार जवान आदमी हो…… ज़रा सा ख़िसक जाओ…. लखनऊ तक की बात है। जवानी की दुहाई देने के बावजूद, नौजवान टस से मस नहीं हुआ। माता जी को मैंने अपने पड़ोस में बिठा लिया।
तभी पीछे के कम्पार्टमेंट से चिर-परिचित, भारी और कर्कश मानवीय स्वर सुनाई पड़े। ये हिजड़े थे जो संख्या में दो थे। अपने विशेष अंदाज़ में ताली बजाते हुए मेरे कम्पार्टमेंट में दाख़िल हुए। कुछ लोग खिड़की के बाहर अंतरिक्ष में कुछ ढूँढने लगे। कुछ हिजड़ों की विपरीत दिशा में देखने लगे, कुछ आँखें बंद करके सोने का अभिनय करने लगे, कुछ सिर झुकाकर अपनी बगलों का निरीक्षण करने लगे .... कुल मिलाकर लगभग सभी इस बात से इनकार करने की कोशिश करने लगे कि इस ब्रम्हाण्ड में हिजड़ा नाम की कोई चीज़ पाई जाती है लेकिन उन हिजड़ों ने बहुत जल्द उन्हें यक़ीन दिला दिया कि हिजड़ा नाम की चीज़ न सिर्फ़ पाई जाती है बल्कि अपने पूरे भौतिक और रासायनिक गुणों के साथ उनके सामने सशरीर उपस्थित है। हिजड़े, नाचने-गाने की अनावश्यक औपचारिकताओं में न उलझकर सीधे मुद्दे की बात पर आ गए। कक्ष में घुसते ही- ए हीरो, ए पीली शर्ट, ए कोने वाले.... लाओ देव, निकालो जैसे शब्दों से अपनी आतंकवादी गतिविधियाँ प्रारंभ कर दी। शब्दों को ज़्यादा असर प्रदान करने के लिए शब्दों के साथ शारीरिक गतिविधियाँ भी शुरू कर दीं। अपना दुपट्टा उतारकर एक यात्री के कंधे पर डाल दिया, किसी के गाल सहलाने लगे, किसी के गाल पर चिकोटी काटी, पेट्रोलियम जेली से चमकते होंठों को देखकर सामने वाले यात्री की ठुड्डी पकड़ कर बोला- तेरी तो मैं चुम्मियां लूँगी। हिजड़े की चुम्मियों की ख़तरनाक सम्भावना से घबराकर उस शख़्स ने झट 10 का नोट निकाल कर पकड़ा दिया। ऊपरी बर्थ के नीचे की झिरी से, ऊपर बैठे यात्री को उंगली से इंजेक्शन लगाया, यात्री उछल पड़ा और खीसें निपोरने लगा। उसने भी दस का नोट थमाया, पड़ोस के यात्री ने छुट्टा पैसे न होने का बहाना बनाया, हिजड़े ने पहले 10 रूपए देने वाले यात्री से कहा- मुझे दे दो बाद में इससे ले लेना। उसने 10 रूपए दे दिए। मेरे सामने बैठा नौजवान, नौजवानों की ही तरह बैठा ऊँघ रहा था, उससे हिजड़े ने- ''ए हीरो, बहुत सो लिए... अब उठ जाओ'' कहते हुए उसके और अपने बीच के फ़र्क़ को पकड़कर ज़ोर से दबा दिया। नौजवान खड़बड़ा कर उठ गया। इस कार्यवाही का अन्य यात्रियों पर गहरा और तीव्र असर हुआ, पुरुष यात्री एक पैर पर दूसरा पैर चढ़ाने लगे, जो यह नहीं कर सके वे अपने पैरों को अधिक से अधिक निकट ले आये।
मैं अपने मन में भयंकर क्रोध, आनंद और कौतूहल के मिलेजुले एहसास के साथ, हिजड़ों द्वारा मुझसे किसी फ़रमाइश की स्थिति में होने वाली सम्भावित बहस की स्क्रिप्ट तैयार कर रहा था लेकिन न मालूम हिजड़े मुझे देख नहीं पाए या उन्हें मेरी शक्ल नहीं पसन्द आई। वे मुझसे बिना किसी फ़रमाइश, अगले कम्पार्टमेंट में चले गए। नतीजन मेरी स्क्रिप्ट, डिब्बाबन्द फ़िल्म की तरह अप्रकाशित रह गई।
हिजड़ों की ज़ोर-ज़बरदस्ती के ख़िलाफ़ कक्ष में कहीं से कोई स्वर नहीं उभरा। सभी ने उनकी गतिविधियों को उसी प्रकार आत्मसात कर लिया जैसे चुनी हुई सरकार के नुमाइन्दों के ज़ुल्म-सितम, ''ऐसा तो होता है'' के सिद्धांत पर ख़ुशी-ख़ुशी ख़ामोशी के साथ बर्दाश्त कर लिए जाते हैं।
मैं बेंच से टेक लगाकर, आँखें मूँद, 'स्टैंड बाय' मोड में आ गया। कुछ समय बाद, सामान्य से कुछ ऊँचे स्तर में होने वाली कुछ अप्रिय ध्वनियों से मेरी तन्द्रा टूटी। ध्यान देने पर ज्ञात हुआ कि ऊपर की बेंच पर बैठे दो यात्री आपस में बहस कर रहे थे। यात्रा समाप्त होने से पहले, हिजड़े को दिए गए 10 रूपए का हिसाब साफ़ किया जा रहा था। एक व्यक्ति जिसने फुटकर पैसे न होने की स्थिति में, दूसरे व्यक्ति के नाम पर हिजड़े को 10 रूपए दिए थे, अब बिना ब्याज अपने मूलधन की वसूली चाहता था। दूसरा पक्ष इस बात पर अड़ गया कि उसने हिजड़े को रूपए देने को नहीं कहा था। बहस के साथ-साथ कक्ष का तापमान भी बढ़ने लगा। इससे पहले कि वे एक दूसरे की माता-बहनों को याद करें और बात शारीरिक दक्षताओं तक आ पहुँचे, कुछ बुज़ुर्ग टाइप लोगों ने कमान अपने हाथ में ले ली। कोर्ट सज गई। बहुमत से फ़ैसला हुआ कि पहले पक्ष को 10 रूपए दे दिए जाएँ, दूसरे पक्ष ने अनमने भाव से 10 रूपए दे दिए।
मुझे गाड़ी का यह जनरल डिब्बा, किसी टीवी रियलिटी शो का मंच सरीखा लगा जिसमे विभिन्न कलाओं में दक्ष विभिन्न कलाकार आते रहे और किसी के एक्सपर्ट कमेन्ट सुने बिना, अपनी प्रस्तुति देकर जाते रहे, फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि यहाँ कोई जज नहीं था, हम सब भी बस एक क़िरदार ही थे।
एकल सीट पर बैठी बेहद ग़रीब (शायद अनपढ़) महिला ने मुझे प्रभावित किया। आज के युग में जहाँ कन्याओं को कुछ लोग बोझ समझते हैं, उस ग़रीब महिला का अपनी बेटी के प्रति लगाव और देखभाल के तरीक़े ने बता दिया कि बेटा-बेटी में फ़र्क़ करना घृणित मानसिकता है। बेटियाँ बोझ नहीं होतीं और बेटियों के लालन-पालन में आर्थिक स्थिति आड़े नहीं आती बस भावना होनी चाहिए।
मैंने देखा धीरे-धीरे ट्रेन की गति धीमी होने लगी। लखनऊ आ गया। गाड़ी की स्टेशनों पर रुकने की आदत इस बार अच्छी लगी। गाड़ी से उतरकर अपने लखनऊ में अपने घर की ओर प्रस्थान किया।
लेखक- निर्दोष कान्तेय
अभूतपूर्व सजीव चित्रांकन
जवाब देंहटाएंबधाई
बहुत शुक्रिया जादौन जी !!
जवाब देंहटाएंbahut sahi.................maza aa gaya
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