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"हरी धनिया जैसी"

कहानी: "हरी धनिया जैसी"

(एक अनकही, अनसुनी सी लड़की की दास्तान)

गाँव के एक छोटे से घर में रहती थी सुहानी। नाम भले ही सुहानी था, पर उसकी ज़िंदगी में बहुत कुछ अनकहा, अनदेखा और अनसुना रह गया था। घर में सबका ख्याल रखने वाली, सबसे पहले उठने वाली और सबसे बाद में सोने वाली वही थी। वो घर की "छोटी बेटी" थी — लेकिन उसकी जगह कभी भी "जरूरी" नहीं मानी गई।

सुबह का सूरज जब निकलता, तब तक सुहानी उठ चुकी होती। बाबूजी की चाय, माँ की पूजा की थाली, भाई की कमीज़, बहन की पसंदीदा चोटी — सब कुछ उसकी लिस्ट में होता। वो किसी शिकायत के बिना सब करती रहती।
पर जब मेहमान आते, तारीफें घर की रौनक की होतीं, माँ की परवरिश की होतीं, बहनों की सुंदरता की होतीं, और भाइयों की सफलता की।
सुहानी का जिक्र? बस एक परछाई की तरह रह जाता।

एक बार घर में बड़ा भोज हुआ। गाँव भर के लोग बुलाए गए थे। खाना इतना लाजवाब था कि लोग उंगलियां चाटते रह गए। एक बुजुर्ग बोले, "वाह! क्या स्वाद है, जैसे किसी ने दिल से बनाया हो।"
माँ ने मुस्कुरा कर सिर झुका लिया, बाबूजी ने गर्व से कहा, "हमारे खानदान में खाने का हुनर तो खून में है।"
पर किसी ने नहीं पूछा कि उस खाने को पकाने में रात भर जिसकी आँखें नहीं लगी, वो कौन थी?

सुहानी तब भी रसोई के पीछे के छोटे से चूल्हे पर खड़ी, जले हुए हाथों से रोटियाँ सेंक रही थी। चूल्हे की आग उसकी आँखों में उतर आई थी — पर आंसू किसी को दिखे नहीं।

शाम ढल गई। सब थक कर आराम करने चले गए। सुहानी चुपचाप आंगन में बैठी थी, अपने हाथों की जलन पर हल्दी लगा रही थी। तभी उसकी सात साल की भतीजी दौड़ती हुई आई और उसके गले से लिपट गई।

"बुआ... सब कह रहे थे खाना बहुत अच्छा था। मम्मी कहती हैं ना, खाने में हरी धनिया डाल दो तो उसका स्वाद बढ़ जाता है। मुझे लगता है तुम हरी धनिया जैसी हो। हर चीज़ में अपना स्वाद भर देती हो, पर कोई तुम्हें देखता ही नहीं…"

सुहानी की आंखों से दो बूँदें टपक गईं — शायद वो जलन अब दिल तक पहुँच चुकी थी।

वो मुस्कुराई, बहुत हल्के से, जैसे कोई टूटा हुआ दीपक आखिरी बार टिमटिमा रहा हो:
"हाँ बिटिया, हरी धनिया जैसी ही तो हूं… हर पकवान में बसी होती हूं… पर कोई नाम नहीं लेता मेरा।" इस कहानी का दूसरा पार्ट बना दे जिसमें सुहानी की शादी होने के बाद सबको लगता हैं उसकी कमी और ससुराल में लकी साबित होती सब हाथों हाथों लिए रहते हैं

✍️
अब्दुल्लाह खान (स.अ.)
प्रा. वि बनकटी बेलघाट गोरखपुर


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