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भिक्षुक

 
  जिस चेहरे का मैं यहाँ उल्लेख कर रहा हूँ। वह अपरिचित होते हुए भी परिचित-सा लगता है क्योंकि ये चेहरे कितनी ही बार हमारे सामने से गुजरते हैं या यूँ कहिए कि हम उनके सामने से गुजरते हैं। रेलवे स्टेशन, मन्दिर के बाहर और सड़क की पटरियों पर असंख्य चेहरे हैं जो हमारी ओर कातर दृष्टि से देखते हैं । यह हमारे लिए विडम्बना हो सकती है कि हम उन्हें आत्मीय दृष्टि से नहीं देख पाते। ऐसे ही एक चेहरे का शब्द - चित्र देखिएगा ---
                     भिक्षुक  
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चेहरे पर झुर्रियाँ,
आँखें धंसी धंसी,
मैं खोज रहा हूँ कि
इस नरकंकाल में,
साँसे कहाँ फँसी।

टुकड़ों को मोहताज,
है जीवन - रस सूखा,
क्यों है जीने का भूखा,
बैठे -बैठे हाँफ रहा है,
जीवन परिधि माप रहा है।

यह कर्मलेख जीवन का,
या पूर्वजन्म का फल है,
जीने का न बचा बल है,
मन बिलकुल है  रीता,
भाग्यवश फिर भी जीता।
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 ✍ रचनाकार :
     प्रदीप तेवतिया
     हिन्दी सहसमन्वयक
     वि0ख0 - सिम्भावली,
     जनपद - हापुड़
     सम्पर्क : 8859850623


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