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वीर तुम बढ़े चलो

काम का बोझ है और ये रोज़-रोज़ है । पता ही नहीं चलता कि हम कब से तनाव में हैं। तनाव में रहने की हमारी आदत- सी जो बन गई है। जिसे देखो भागा जा रहा है, जो भाग नहीं रहा, वह काम के बोझ से दबा जा रहा है । जिससे हाल पूछिए वही स्वयं को बेहाल बताता है ।ऐसी ही मनोदशा की काव्यात्मक प्रस्तुति आपको समर्पित है ---  

वीर तुम बढ़े चलो 
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सूचनाओं पर तने रहो ,
हरघड़ी फोन में लगे रहो,
प्रातः हो या रात हो , 
हर किसी से बात हो ।
वीर तुम बढ़े चलो ,
धीर तुम बढ़े चलो । 

अपनी जेब खंगालते रहो,
बिगड़ी बात सम्भालते रहो, 
कामयाबी का मंत्र जान लो ,
गधे को बाप मान लो ।
वीर तुम बढ़े चलो ,
धीर तुम बढ़े चलो ।

समस्याओं का पहाड़ हो , 
किसी की या लताड़ हो ,  
तुम किंचित डरो नहीं , 
ग़ैरत से मरो नहीं ।
वीर तुम बढ़े चलो ,
धीर तुम बढ़े चलो । 

झूठ- सच में पड़ो नहीं , 
आक़ाओं से लड़ो नहीं,  
हुक्म जो तुम्हें मिले ---
खुशी-खुशी मानते चलो । 
वीर तुम बढ़े चलो ,
धीर तुम बढ़े चलो ।

व्यवस्था को मरोड़ दें ,
अब ये ख़्याल छोड़ दो ,
मुर्दों के बीच रहकर ,
इंक़लाब बोलते रहो ।
वीर तुम बढ़े चलो ,
धीर तुम बढ़े चलो । 

जीतते या हारते रहो ,
शेख़ी तुम बघारते रहो ,
कोई सुधरे या न सुधरे ,
स्वयं को सुधारते रहो ।
वीर तुम बढ़े चलो , 
धीर तुम बढ़े चलो ।

     ✍️
  प्रदीप तेवतिया 

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