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डर

डर

डर, एक अजीब सी भावना है,
जो जीवन को बनाती है बोझिल।
डर, एक ऐसा रोग है,
जो शरीर को बनाता है बीमार।

डर, एक ऐसी दीवार है,
जो रोक देती है हमें आगे बढ़ने से।
डर, एक ऐसा अंधेरा है,
जो छीन लेता है हमारी स्वाभाविक चमक।

डर से नहीं डरना चाहिए,
बल्कि डर का सामना करना चाहिए।
डर से डरने से,
हम अपने लक्ष्य से दूर होते जाते हैं।

डर को जीतने से,
हम अपने जीवन को सफल बना सकते हैं।
डर को जीतने से,
हम अपनी स्वाभाविक चमक को वापस पा सकते हैं।


इस कविता में डर के बारे में बताया गया है कि यह एक ऐसी भावना है जो जीवन को बोझिल और बीमार बना देती है। डर से डरने से हम अपने लक्ष्य से दूर होते जाते हैं और अपनी स्वाभाविक चमक खो देते हैं। इसलिए हमें डर से नहीं डरना चाहिए, बल्कि उसका सामना करना चाहिए। डर को जीतने से हम अपने जीवन को सफल बना सकते हैं और अपनी स्वाभाविक चमक को वापस पा सकते हैं।


✍️ रचनाकार : प्रवीण त्रिवेदी
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर


परिचय

बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।

शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।

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