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औरत

"औरत🙋
दिल के ख़्वाब सारे
किसी कोने में रख आई "औरत
जाने कितने रिश्ते-नाते
हँसकर संजोती आई --"औरत
कोई अस्तित्त्व कोई वजूद नही
फिर भी सभी घर की रौशनी
बनती आई औरत....!
जीवन इसका देखो ..एक
कठिन राह सी लगती है , 
रूप कई है इसके 
उन सब में वो डूबी है ।
कहते है सभी महान्
पर क्या?
कर पाते है इसका सम्मान !
निर्बल,अबला,असहाय
जाने कितने इसके नाम
इन नामो के बीच में कोई
नही इसकी पहचान !!
खुद से बातें करके
खुद को तसल्ली देती है
छोड़ के खुद की खुशियों को
औरों की खुशियो में
खुश हो लेती हैं ।
पहिये की गति सी चलती है
चलती रहती ......
नही थकती है !
सच है ये ..
है माना गया
आधार स्त्री-पुरुष जगजीवन के
फिर इस आधार में,
क्यों ? 
जीती वो बिन आधार के ।
क्यों ?
त्याग करे केवल औरत
क्यों ?
अबला बलि चढ़ाई जाये
है !! 
अगर वो शक्ति नवदुर्गा 
फिर क्यों!!
बेचारी कहलाई जाये ।
दामिनी सी निर्भय होकर
कहाँ गति से चल पाती है
दूषित नजरों से,चलती रहो में
वो अक्सर घुरी जाती है ।
कुछ दर्द बया हृदय के प्रांगण में
कभी किसी से कर पाये
उससे पहले कंठ उसके
बेस्वर से हो जाते है ।
बस धुँधली सी तस्वीर अस्तित्व की ...
कुछ चेहरों में तलाशती है ।
कुछ ज्यादा तो नही ..
बस चन्द ख्वाब 
अपने लिए चाहती है ।
वास्तव में .....
दया की पात्र,निर्बल,कमजोर,असहाय
नही है औरत ,.!
पूर्णरूप से अडिंग प्रकाश 
से मण्डित ...
अभिव्यक्तियों की हकदार है औरत.....।
ममता,समर्पण,क्षमा,सहनशीलता
सौंदर्य ,दया सबमें 
परिपूर्ण है औरत ...।

सर्व निछावर करके वह 
कर्त्तव्यशील बन जाती है ।
तभी तो इस जग में ...वो
एक सम्पूर्ण औरत कहलाती है ।"

✍️
दीप्ति राय(स0अ0)
प्राo विo रायगंज, खोराबार
      गोरखपुर

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