सम्यक् दृष्टि
।।सम्यक् दृष्टि।।
(अब समय आ गया है कि वर्तमान परिस्थितियों व परिदृश्यों से अनुभूत विचारों को व्यवहार में रूपांतरित किया जाय.....
कभी तो कुदरत की सुनें!)
कृत्य हमारा सम्यक् हो,
संस्कृति के हम संवाहक हों।
मन की माना बहुत हुआ,
अब तो नीति नियामक हो।।
मानव का यह देह मिला,
मनुष्यत्व उतरना बाकी है।
आदि हमारा बेशक सुधरा,
अंत सुधरना बाकी है।।
हो पाक निरामिष पापरहित,
जीवो का संहार न हो।
उस कुंज में गूंज नहीं रहती,
जहांँ मुदिता का संचार न हो।।
जब अंबर सा विस्तार नहीं,
तो धूम्रपान का शान न हो।
जब नीलकंठ सा कंठ नहीं,
तो मदिरा का रसपान न हो।।
।। धर्मो रक्षति रक्षित:।।
✍️अलकेश मणि त्रिपाठी "अविरल"(सoअo)
पू०मा०वि०- दुबौली
विकास क्षेत्र- सलेमपुर
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