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मजबूरी

मजबूरी

एक घनघोर झंझावात है मज़बूरी
मजबूरी का कोई मौसम नहीं
कब कहां किस मोड़ पर
पकड़ ले दामन
कोई जानता नहीं ।
पर क्या करें,,, इस बेहिसाब बेरंग से,, मौसम की मजबूरी को 
बेमन और हिम्मत के साथ
ही जीना पड़ता है ।
जीवन के मंझधार में
मिली हर एक मजबूरी को
भंवर में फंसे तैराक की तरह
तैर कर किनारे पर,,,
 आना ही पड़ता है ।
चाह कर भी ना चाहते हुए रिश्तो
 को,... नए आयाम देकर
सकारात्मक सोच बनाना ही पड़ता है ।
मन के चढ़ते-उतरते भावों को
पूर्ण विराम लगाना ही पड़ता है।
मजबूरियां ही तो है यह !
जो बेबस गरीब है मजदूर
एक रोटी के लिए अपने
आशियाने से कोसों दूर .....
मजबूरी ही है जनाब ये
जो ठिठुरती ठंड में भी
रिक्शेवाले को अपने कांपते
पैरों से,......
परिवार की जीविका के लिए
रिक्शा खींचना ही पड़ता है ।
मजबूरी ही है ये ....
जो हर रोज कचरों की ढेर में,,
कुछ फटे हाल बच्चों को,,
रोटी के चंद टुकड़ों को ढूंढना 
ही  पड़ता है।
 
भूख से तड़पने की है मज़बूरी
ना जाने कितने परिवारों को
खुले अंबर तले सोना ही पड़ता है 
मजबूरियां तो ऐसी होती है,,...
रोती आंखों को भी दिखावे में..
हंसी के आंसू बनाकर बहाना 
ही पड़ता है ।
कभी-कभी तो हद ही कर जाती है मजबूरी ....!
सही को गलत करके ...हर प्रश्न पे
होठों को खामोशी से ....
सीना ही पड़ता है ।
अब क्या कहें पूरा जीवन ही
कहीं ना कहीं है मजबूरी...!
 इसीलिए तो......
मजबूरियों को मजबूरी से मिलकर जीना ही पड़ता है ।

✍️
दीप्ति राय (दीपांजलि)
सहायक अध्यापक 
प्राथमिक विद्यालय रायगंज खोराबार गोरखपुर

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