बागी
बागी
हाथ की रेखाएं,
नहीं बदल सकी मेरी तकदीर
मैंने हाथ की रेखाओं को, बदल डाला...........
मैंने अपनी तकदीर बदली
आज खुश हूं पर.....
मैं नियंता नहीं बन सकी
मैं बागी बनी.......
क्योंकि मैंने हाथ की रेखाओं को बदला
मैंने उन बेड़ियों को तोड़ा
जो समाज ने मेरे पैरों में डाला था जो मेरे हाथ की रेखाओं में था..
मैंने अपने अस्तित्व को पहचाना पर...
मैं नियंता नहीं बनी
मैं बागी बनी.....
मैंने पराजय की सारी रेखाओं को मिटा डाला और मैंने जय पाया, पर मैं नियंता नहीं बनी ।
मैं बागी बनी..........
✍️
सरिता गुप्ता (प्रभारी प्रधानाध्यापक)
इंग्लिश मीडियम कंपोजिट विद्यालय रामपुर
क्षेत्र-खोराबार, गोरखपुर
Great work
जवाब देंहटाएंNice poem