उम्मीदें
उम्मीदें
--------
शेष
मैं ही तो बचा हूं आज
शायद नहीं !
तुम्हें तो
विश्वास भी नहीं होगा
मेरे
खोखले शरीर से तुम्हें
खोखली आवाज़ ही सुनाई देगी
जाओ
जाकर देख लो
खूंटे पर टंगी
कतरनों को जोड़ - जोड़ कर बनी
मेरे कुर्ते की जेब को
जिसका
एक - एक सिरा
तुम्हें
संवारने की बेताबी में जाने कब का
एक - एक कर उधड़ चुका है
तुम्हें तो शायद ?
नहीं - नहीं मैं ही गलत था
जो बचाकर रखा था
इन उखड़ती एक - एक सांसों से
कुछ को बचाकर
और
देखता रहा जाने क्यों
तुम्हारे गठीले होते बाजुओं को...
✍️
राजीव कुमार
स. अध्यापक
पू. मा. वि. हाफ़िज़ नगर
क्षेत्र - भटहट
जनपद - गोरखपुर
कोई टिप्पणी नहीं