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दीवार

 दीवार
(एक बुजुर्ग की व्यथा)



खड़ी की थीं कल जो दीवारें घर के मुखिया ने घर की आड़ को

उठी बढ़ी हैं आज वही दीवारें मन में, बाँट रहीं घर द्वार को

दुखिया रोये,मुखिया रोये,देख के अपने घर संसार को ।


कर के मेहनत रात दिन,एक छोटा सा बाग लगाया था

बना के खून पसीना अपना हर गुल को महकाया था

खाद बनाकर अपनी साँस हर पौधे में जान फूँकी

होता था ग़मगीन माली,जब भी कोई जो कली झुकी

खुश होता था देख के मुखिया खुश अपने परिवार को 

दुखिया रोये,मुखिया रोये,देख के अपने घर संसार को।

खड़ी की थीं – – – – – – – – – – – – – – –

उठी बढ़ी हैं – – – – – – – – – – – – – – – 

दुखिया रोये – – – – – – – – – – – – – – – ।

चार से आठ हुईं दीवारें , घर का मुखिया रोता है 

रातों जागे, नींद न आवे, जग सारा जब सोता है

रोते-रोते सोचे वो,सोचे-सोचे रोता वो,किसकी लगी है नज़र हाय

रात की नींद और दिन का चैन लूट के ले गया कौन हाय

फफक पड़ता है उसका दिल और छलक पड़ती हैं अँखियां सोच

के पुराने दिन और घर बार को 

दुखिया रोये,मुखिया रोये,देख के अपने घर संसार को।

खड़ी की थीं – – – – – – – – – – – – – – –

उठी बढ़ी हैं – – – – – – – – – – – – – – – 

दुखिया रोये – – – – – – – – – – – – – – – ।

सब गुलों की खातिर की इक जैसी,सबको दिया था सुख सम्मान

आज शरीर से अपने हारा माली तो हर गुल बन रहा अनजान

हर गुल ने अपने चारों ओर खड़ी कर ली इक दीवार

देख के अनदेखा और सुन के अनसुनी करें,बदला सबका ही व्यवहार

फिर भी रब से मांगे दुआ इन्हीं गुलों के सुखी घर परिवार को

दुखिया रोये,मुखिया रोये,देख के अपने घर संसार को।

खड़ी की थीं – – – – – – – – – – – – – – –

उठी बढ़ी हैं – – – – – – – – – – – – – – – 

दुखिया रोये – – – – – – – – – – – – – – – ।

घर की दीवारें गिरा दे जो , ना वो मज़दूर चाहिए

दिखे न जिसको कोई , ना वो गुरुर चाहिए

मुझे तर्क-ए-दिली दीवारों के अहसास का सुरूर चाहिए

खुश होगा मुखिया जब खुश रहेंगे बच्चे अपनी बार को

रश्क़ करेगी दुनिया राज देखके ऐसे घर परिवार को।

✍️
 राजकुमार दिवाकर
 प्राथमिक विद्यालय नवाबगंज पारसल
 स्वार, रामपुर 

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