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हे! महाकाल

हे! महाकाल

आई आज ये कैसी घड़ी है,
सांसों की टूट रही हर लड़ी है ।
बांधूँ धीरज कैसे किसके,
आंसू रोकूँ कैसे सबके ।।

रोना तो अब रुक ही न रहा है,
क्या करूं कुछ सूझ  ही न रहा है ।
आदमी तो खिलौना हो रहा है,
"आलिंगन मृत्यु" कैसे सो रहा है ।।

ऐसे कोई कभी न जाए,
अपनों को कभी न रुलाए।
अब हम उन्हें कहाँ से पाएँ ,
जाने वाला लौट के न आए ||

एक दहशत सी बनी रहती है, 
विपदा आई आज ये भारी है ।
कोरोना का कहर तो अब फैला है,
आदमी का आदमी पे कहर जारी है ।।

गिरगिट से आगे था आदमी,
रंग ढंग  बदलने में माहिर आदमी ।
कोरोना के आगे अपने को बेबस पाया है,
आज आदमी ने अपने को ठगा पाया है ।।
 
अब हमको सरल बनना होगा,
प्रकृति के नियमों पर चलना होगा ।
प्रकृति में से कम से कम लेकर,
ज्यादा से ज्यादा देना होगा ।।

आओ हम सब भीख माँग लें,
सबकी सेहत,खुशियाँ माँग लें ।
हे!प्रभू क्षमा करना,सहन शक्ति देना,
"ये काल" हे!महाकाल जल्दी से समेट लेना।।

✍️
प्रतिभा भारद्वाज (स०अ०)
पू०मा०वि०वीरपुर छबीलगढ़ी
जवाँ,अलीगढ़

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