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"प्रेमधाम

 "प्रेमधाम"

प्रयाग काशी मथुरा ढूंढ़ा अवन्तिका अविराम।
सप्तद्वीप नवखण्ड धरा पर कहा प्रेम का धाम।।
तुमसे निकली बूंद यहां तक बहती है,
सागर से मिलती सरिता ये कहती हैं।
ओस की कणिका रो रो कर है क्रंदन करती,
कहां हो मेरे प्रेमार्णव अभिनन्दन करती।
अंगारा गोंडवाना ढूंढ़ा कहीं मिला न नाम।।
सप्तद्वीप ०।।
गदह पचीसी खोजि के तैतीस कोटि में आया,
काम क्रोध मद लोभ मिले न तुमको पाया।
नखत सत्ताइस ढूंढ़ा द्वादश सूर्य निराले,
श्याम वर्ण घन कहीं न देखा मिले घनेरे काले।
पंचप्राण नव निधि अठ सिद्धि भी न आये काम।।
सप्तद्वीप ०।।
कल का सांचा आज का झूठा कैसा रूप दिखाये,
चौरासी भरमत पग हारे प्रेम-धाम न पाये।
अखियां तरसी निशि दिन बरसी ह्दृज्वाला भड़काये,
काल निशा जिह्वा फेलाये दामिनि सी कड़काये।
कहां हो मेरे प्रेम-बीज तुम सगुण रूप निष्काम।।
सप्तद्वीप ०।।
मृगतृष्णा की धार सार को लील रही है,
चौदह भुवन में कहा छिपी जो कील रही है।
आशाओं के दीप निराशा बनते जाते लगते,
जन्म हुआ मणिशेष तिमिर को गिनते गिनते।।
मुक्त हो गये मिलन पंख सब मिला न मुक्ति धाम।।
सप्तद्वीप ०।।

✍️
शेषमणि शर्मा
स०अ०प्रा०वि०- नक्कूपुर, छानबे
जनपद-मीरजापुर

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