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चोरी करना पाप है-संस्मरण

मैं प्राथमिक विद्यालय  की एक कक्षा में नैतिक मूल्यपरक कथा "चोरी करना पाप है" सुना रही थी। कहानी को यथोचित हाव-भाव और लय के साथ सुना कर बच्चों के मन और मस्तिष्क से जुड़ने का प्रयास कर रही थी। कहानी तभी प्रभाव डालती है जब बच्चों से भावनात्मक रूप से जुड़ा जाए। बच्चे ध्यानमग्न और आनंदित होकर सुन रहे थे। उन्हीं बच्चों में सबसे पीछे बैठा एक बालक जिसका मन कहानी में नहीं रम रहा था, इधर-उधर देख रहा था। मैंने उसे टोकते हुए अवधान केंद्रित करने का प्रयास किया। आखिरी घंटा था। इसके बाद छुट्टी की बेला आ गयी। सभी बच्चे गेट से बाहर जाने लगे। तभी एक बच्ची रोते हुए मेरे पास आयी और अपनी चप्पल चोरी होने की शिकायत की। मैने तुरंत मेन गेट बंद करवा कर बच्चों की तलाशी लेने को कहा। बच्चे एक दूसरे के बैग की तलाशी लेने लगे। तभी वही बच्चा, जो कक्षा में विचलित दिख रहा था, पंक्ति से अलग होकर तेजी से गेट की ओर जाने का प्रयास करने लगा। बच्चों ने दौड़कर उसे पकड़ लिया। उसके बैग में चप्पल पायी गयीं।
                   मैने आपा खो दिया और एक जोरदार तमाचा उस बच्चे के गाल पर जड़ दिया, सन्नाटा छा गया। बाल मन कराह उठा। उसकी आँखों से अश्रुधार निकल पड़ी। मेरा मन द्रवित हो उठा। मैंने उससे आत्मीयता से पूछा,"कहानी सुनने के बाद भी तुमने ऐसा क्यों किया?" वह रोते हुए बोला," हम दोनों भाई-बहन के पास पहनने के लिए चप्पल नहीं हैं। चप्पल मैंने अपनी छोटी बहन के लिए चुराई। कल स्कूल आते समय उसके पैरों में कांटा लग गया था। ये मुझसे देखा न गया। मुझे माफ़ कर दीजिए।"
मैं स्तब्ध! समझ नहीं पा रही थी, किसे दोष दूं अपनी दी हुई नैतिक शिक्षा को या फिर उस बच्चे की निर्धनता को?

             आज जब बच्चों के लिए निःशुल्क जूते-मोजे बांटने का आदेश आया तो मुझे ये घटना सहसा याद आ गयी। निर्धनता के अभिशाप के साथ जन्मे ये बच्चे अभावग्रस्त जीवन जीने के लिये विवश हैं। जब ये विद्यालय में प्रवेश लेने आते हैं तो इनमें तन पर कपड़े और पैरों में चप्पल तक नहीं होते। विद्यालय में सरकारी सहायता के रूप में मिल रहे मध्यान्ह भोजन, बर्तन, किताबें, पोशाक और अब जूते-मोजे और अब स्वेटर भी, दैनिक जीवन की आवश्यकता हैं। इन वस्तुओं का महत्व हम भले ही न समझ सकें लेकिन, इन बच्चों के लिये उनका महत्व उक्त घटना में दिखाई देता है। इन अभावग्रस्त बच्चों को  विद्यालय में नैतिक उपदेश देना उसी प्रकार है, जैसे किसी भूख से व्यथित व्यक्ति से भोजन दान करने के लिये कहा जाये। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि, अभाव का जीवन इन बच्चों को चोरी, झूठ, बेईमानी जैसे अनैतिक कार्यों को करने के लिये विवश कर दे और शिक्षा अपने मूल  उद्देश्य से भटक जाये। इन सामग्रियों का लाभ देते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाये कि बच्चे इन्हें प्रोत्साहन समझें, न कि प्रलोभन। उन्हें ये समझाना होगा कि ये वस्तुएं उन्हें इसलिए दी जा रही हैं ताकि वे बिना रुकावट अपनी शिक्षा पूरी कर सकें न कि मात्र उनकी ज़रूरतें पूरी करने के लिये।  सरकार की ओर से अनुदानित कोई भी योजना तब तक व्यर्थ नहीं कही जा सकती जब तक इसका लाभ वास्तविक रूप से वंचित वर्ग को मिलता रहता है और इसके सकारात्मक परिणाम दिखाई देते हैं।

लेखिका
कविता तिवारी,
प्रा0वि0 गाजीपुर (प्रथम),
विकास खण्ड-बहुआ,
जनपद फतेहपुर।
            
                

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