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सत्य

एक दिन अपनी तन्हाई के साथ
हो गयी एक पत्ते से मुलाक़ात

जो कि अपनी डाल से
गया था बिछड़,
या कि उसका संसार ही
गया था उजड़

पड़ा था भूमि पर मृतप्राय
लगा मुझे पूरी तरह निरुपाय।

मैंने किया एक सवाल
कैसे अलग हुई
तुमसे तुम्हारी डाल ?

पत्ता मुस्कुराया और बोला
यूँ ही जीना पड़ता है,
सुख का अमृत
और दुःख का विष
दोनों ही पीना पड़ता है।

जैसा हूँ आज
मैं कल नहीं था
कमतर कभी मेरा
मनोबल नहीं था,

सूरज की तेज़ तपिश
को सहता रहा हूँ,
समय के साथ ही
चलता रहा हूँ

कभी पुरवा ने गुदगुदाया
कभी बरखा ने नहलाया,

मैंने भी देखा है
ऋतुराज बसंत,
पर क्या करूँ अब हो गया है
उसका भी अंत।

जीवन के पतझड़ ने
दे दी है दस्तक,
साथ नहीं मेरे
जो साथ रहे कल तक।

पतझड़ के आने पर
आधार छूट जाते हैं
इस तरह शाखों से
पत्ते टूट जाते हैं

फिर नहीं होता कुछ भी
करने के लिए
वे जीते हैं सिर्फ
मरने के लिए।

मैं निहारता रहा उस पत्ते को
लगातार, अपलक
मानव जीवन के सत्य की
मुझे मिल गयी थी झलक ।

रचयिता
राहुल शर्मा,
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय कुंभिया
शिक्षा क्षेत्र - जमुनहा,
जनपद - श्रावस्ती।

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