दद्दा द्रोणाचार्य
आज बड़का दद्दा से अचानक मुलाकात हुई गई....अचानक माने ई नही कि हम कब्बौ मिलतेहे नही.....माने ई कि आज का मउसम सबसे ज्यादे ठंडा था .... अऊर दद्दा तो व्हाट्सएप पर पहिलेहे दिनभर के लिये..... 'स-रजाई विश्राम' का भोंपू फ़ूँक के निकल लिये थे ....लेकिन हमे भेंटाये गये मॉल के अंदर... माल ताकते ।
हम मन बनाये कि चलौ कंही मन बहलाये आते हैं.... घर म घुसे-२ कोढ़िया हस गे रहन..... सो आवाज़ दै के तइयार होय का फ़रमान जारी कर दिया । अपनी ससुराल से जऊन 'मुसीबत' को हम खुशी-२ पाँच बरस पहले लै आये थे..उहै लिवाय के घर से निकल लिये । मन म सोचेन कि चलौ आज 'फ़ीनिक्स-मॉल' मे मुफ़्त के ब्लोवर की गर्मी लेते हैं.... अऊर धौंसियाने के लिये एक मुफ़्त का कारण भी मिल जायेगा कि 'घुमाते तो हैं हम रोज तुमको..... अऊर का हमरी जान लेवगी...?
अब्बै इंट्री गेट पर हम दूनौ का 'मेटल-डिटक्शन' हुई रहा था कि हमरी नज़र ..... अंदर नज़रें बचाये घूम रहे दद्दा पर पड़ि गई । हम अचानक से उनके सामने प्रगट हुई गये जाके.... सादर नमस्कार किया पर देखा के दद्दा हमे भावै नई दै रहे.... सो हम भी कट लिये । लेकिन खुरपेंची दिमाग़ ने कहा कि दद्दा की भाव-भंगिमा मे दोष है.... ।
बालों मे लगी ललिहर मेहंदी से ...उनके बाल उस कृत्रिम रौशनी मे इकदम हीरो माफ़िक लुक दे रहे थे... चश्मे के बीच से झांकती उनकी डोरेदार आँखें कभी तो सिकुड़ कर छोटी हो जातीं... अऊर फ़िर से सामान्य हो जातीं ।हमने उनकी नज़रों का चुप्पे पीछा किया अऊर पाया कि उनकी नज़रें लगातार किसी को ताड़ तो जरूर रही थीं....किंतु एक मंझे हुये खिलाड़ी की तरह उनकी नज़रें हर दूसरे व्यक्ति पर भी थीं .....जो भी उनके आस-पास की रेंज मे था .... अऊर फ़िर हम तो खास अनचाहे थे ।
एक बार तो मुझे भी लगा था कि मेरा कैलकुलेशन ग़लत है...किंतु वह 'पुराना चावल ' ही क्या....जो फ़ैल कर न पका हो....मतलब ई कि हमरा कैलकुलेशन ग़लत होने का जो हमको ख़ुद पर शक हुआ था....ऊ कत्तई भी ग़लत नही था...बल्कि ई तो उनकी योग्यता का साक्षात प्रमाण था... ।
लेकिन मानना पड़ेगा भाई की 'तड़ाई' को....एकदम टउवाँ पीस ताड़े थे..... इत्ती सर्दी म ऊको देखि के हमरौ टेम्परेचर बढ़ि गया था.... फ़िर दद्दा तो काफ़ी देर से आगी तापै म लाग रहे होइहें..... काहे से जब हम अपनी पत्नी के साथ मॉल मे कदम रखे थे... ऊके पहिले से दद्दा हुवाँ डेरा जमाये रहे ।
पर जबसे हम आमिर की 'पी.के.' देखा है....हमरा सब नंबर सहिये लग रहा है....इक्कौ राँग न लगा तब से .. और फ़िर हमरी पारखी नज़र भी कमालै की है...और होये भी काहे न..चोर-चोर मउसेरे भाई ।नज़र तो हमरी भी लगी थी बराबर...लेकिन हम बहुतै मजबूर थे....काहे से कि 'अपना भाई ' सिंगल सलोटा था....लेकिन हम अपने साथ जासूसन की मउसी लिये रहन... आज तक इक्कौ बार न बच पायेन....य मारे रिस्क उठाये की हिम्मत न जुटी। मन की तड़पन का जऊन एहसास दद्दा को हमरे पहुंचने के बाद हुआ था , दद्दा झेल ना पाये.... अऊर हमसे बोले , "अभी जा रहे..... फ़िर शाम तक तुम्हरी भौजी को लिवा के आयेंगे... तब होयेगी ख़रीददारी ।"
दद्दा तो निकरि गये बहाने से..पर टउवाँ छोड़ि गये हमरे ताड़े के लिये... ।हमहू चुप्पै एक कोना पकरा...औ बस लटकाये दिया 'आँखी'.... फ़िर जेत्ता दद्दा सिखाइन रहा..... द्रोणाचार्य बन के....अऊर जेत्ता हम सीखा रहा ओत्तेही देर म उनसे एकलव्य बनि क....हमहू वही का प्रैक्टिकल करे लाग गयेन.......।
धन्यवाद दद्दा..... हमहू क कउनो जाने नही पावा...कहे से हमरे हस की आँखी सबके पास तो है नाही...!
(सुधांशु श्रीवास्तव)
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