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भला ऐसी सज़ा कोई चुनता भी है

डाँटकर माँ ने एक दिन चाँद से पूछ ही लिया
जब तुम बच्चों के मामा हो तो कुछ लाते क्यों नहीं
ये मेरा ससुराल है कुछ लिहाज़ तो रक्खो
रात को आते हो दिन में आते क्यों नहीं?
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कश्ती कागज़ की थी
फिर भी
किनारे पर ही रुकी
शुक्र है जिन्दा हैं
वरना मर तो कब के ही गए थे।
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कांच  टूटा है कहीं
रह रह  कर चुभता है
खरोच देता है रूह को
कोई निशाँ भी नही छूटता
के दुनिया को दिखा सकें।
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चाल बिसातों की तो बहुत चली है हमनें
मगर वक़्त की चाल से मात खा रहे हैं
कभी बराबर रहे थे हम वक़्त के
फ़िलवक्त हारते हारते चले जा रहे हैं।
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किताब बन जाएं दिल में चल रही बातें अगर
लोग हैरान होंगें हम क्या-क्या सोचते हैं ये जानकर
हम चुप ही रहे तो अच्छा है
लोग सुनते नहीं हमें पागल मानकर।
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लिख के चंद शब्द सुकून पा लेते हैं
क्या मेरी कहीं कोई सुनता भी है
लो कलम भी छोड़ देते हैं तेरी ख़ातिर
भला ऐसी सजा कोई चुनता भी है।
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