मेरा विद्यालय
घर आँगन सा है प्यारा ,
मेरा विद्यालय सबसे न्यारा।
जब यहाँ पर मैं आई थी ,
जान न किसी को पाई थी।
भाषा भी थी कुछ अलग अलग,
बच्चे आते थे बदल बदल।
देख सिर मेरा चकराया था,
समझ में कुछ न आया था।
मेरा विद्यालय सबसे न्यारा।
जब यहाँ पर मैं आई थी ,
जान न किसी को पाई थी।
भाषा भी थी कुछ अलग अलग,
बच्चे आते थे बदल बदल।
देख सिर मेरा चकराया था,
समझ में कुछ न आया था।
कुछ खो जाए कहते बह गयी ,
मैं समझी कोई नदी पड़ी।
कोई बच्चा यदि न आता ,
कहते टेर लाएं क्या।
टेर मैने कब मंगाया था?
सुन सिर मेरा चकराया था,
समझ में कुछ न आया था।
अगले दिन वह आया निकल ,
पूछा क्यों नही आया कल।
कहता मूड़ पिराता था,
न जाने कौन सा रोग बताया था।
तब सिर मेरा चकराया था,
समझ मे कुछ न आया था।
स्कूल ड्रेस क्यों न पहनी तुमने?
कहते वो तो फीचि पड़ी।
सुन-सुनकर उनकी बातें,
मै तो यूँ ही स्तब्ध खड़ी।
तब सिर मेरा चकराया था,
समझ में कुछ न आया था।
पर आज बदल गये हालात हैं ,
वो सब मेरे साथ हैं।
मेरी डांट भी उनको प्यारी ,
उनकी बातें मुझको भाती।
कुछ मैने तो कुछ उन्होंने भी सिखाया है,
अपने पीछे मुझको बहुत दौड़ाया है।
हम सब एक परिवार हैं ,
रहते हरदम साथ है।
नहीं अब सिर मेरा चकराता है ,
समझ में सब कुछ आता है।
रचनाकार
अर्चना रानी,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय मुरीदापुर,
शाहाबाद, हरदोई।
Amazing ! (after saying this no need to describe anything)
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