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खोता हुआ बचपन

देखा है मैंने खोता बचपन..
ढाबे पर जूठन समेटता बचपन..
काँच के गिलास की खनक में खोता बचपन...
टायर के पंक्चर जोड़ता बचपन...
हाँ देखा है मैंनें खोता बचपन...

धान के खेत में उम्मीदें रोंपता बचपन.
नशे मे धुत बाप का बोझ ढोता बचपन...
समय से पहले बूड़ा होता बचपन...
हाँ देखा है मैनें खोता बचपन...

अंधेरी सीलन भरी कोठरी में सिसकता बचपन...
इंसान की खाल में भेड़ियों के हाथों रौंदता हुआ बचपन..
नन्हें सपनों को अपनी हवस में कुचलता हुआ बचपन....
हाँ देखा है मैंने खोता बचपन...

क्या यही नियति है इस बचपनकी..
की खोके खुद का वजूद गुम हो जाना.
और संदेह करना खुद के होने ना होने का ...
शुरू होगा एक नया सिलसिला ...
कि पैदा होना और वयस्क हो जाना...

कहां गई वो अठखेलियां वो नादानियां..
वो नानी दादी की कहानियां ...
बारिश के मौसम में शहजादों के जैसे जहाज चलाना...
लड़ना झगड़ना और फिर एक हो जाना ....
एक कट्टी और फिर छोटी उंगली मिलाकर बट्टी हो जाना...

है गुजा़रिश मेरी दिल से ऐ दोस्तों..
ना खोने दो इस मासूमियत, इस मुस्कान को ....
न बनाओ इन्हें समय से पहले बड़ा...
ना डालो बोझ इनपर जिम्मेदारियों का..
बहने दो इन्हें समय के साथ ....
उड़ने दो तितलियों के जैसे रंग बिरंगे सपनों के साथ ............
दूर तलक|
 
रचयिता 
मीनाक्षी भारद्वाज, स0अ0,
प्रा0 वि0 भगवतीपुर घेर,
विकास खण्ड-सालारपुर,
जनपद-बदायूँ

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