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बीता हुआ


बीतते समय के साथ,हम भी बीत रहे हैं
कहीं हार रहे , कहीं जीत रहे हैं।
चलते चलते कितना दूर निकल आये हैं ,
कैसे कैसे मुकाम इस जीवन में पाये हैं।
क्या क्या छूट गया क्या क्या छूटा जाता है ,
पलट कर देखो तो आँखों में समंदर उतर आता है।
कितने लोग ,कितने द्वंद्व
कितने रस , कितने छंद।
कितने दिन , कितनी रातें
कितने पल,कितनी बातें।
आगे बढ़ने की कीमत पीछे छूटे क़दमों ने चुकाई है
सम्भव नहीं इसकी भरपाई है।
वो देखो मुस्करा रहा है बचपन
निश्छल हँसी और स्वच्छ मन
वो दोस्त वो खेल
    कभी लड़ाई कभी मेल।
अम्मा की लोरी , बाबा के किस्से
वो भाई बहन के बीच मूंगफली के हिस्से।
माँ का प्यार , वो मीठी झिड़कियां
घर की दीवारें , दीवारों पे लगी खिड़कियाँ।
पापा की ऊँगली , स्कूल के रास्ते
हमारी हंसी में ही वो अपनी हंसी तलाशते।
वो मायके का आँगन , मैं तितली सी उड़ती
ससुराल की चौखट पर , लज्जा से सिकुड़ती।
टूट रही अब ,विचारों की लड़ी
बंद कर दिए हैं स्मृतियों के द्वार
लगा ली है अब "आज" की कड़ी
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लेखिका परिचय :
रचनाकार के रूप में जब भी भाव उभर आये अंतर्मन में और वह कलमबद्ध हो जाएँ बस ऐसे ही तरीके से रचनाकर्म में लीन श्रीमती गीतांजलि  जनपद कानपुर देहात के सरवनखेड़ा विकासखंड के प्राथमिक विद्यालय भिखनापुर में शिक्षण कार्य कर रही हैं। आपका साहित्यशाला में स्वागत है।

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