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लाॅकडाउन

लाॅकडाउन
  

लाॅकडाउन है, चाॅकडाउन है, 
खुली है मोबाइल की स्क्रीन ,
उँगलियाँ पल पल  नाचती  हैं
रातदिन कितने संदेशे बाँचती हैं ।

कहीं नेट की समस्या गम्भीर है, 
कहीं नेटवर्क ही बड़ा अधीर है, 
कहीं मोबाइल नहीं तो वर्क नहीं, 
कहीं नेटवर्क  नहीं तो सर्च नहीं ।

दहशत ने ओढ़ी चुप्पी की चादर ,
सबके नैना लगते हैं कातर किंतु, 
सरसराहट सुनायी पड़ रही है ,
लगता है कहीं कुछ हो रहा है। 

हो सकता है हवा का कोई झोंका, 
सूखी पत्तियों को छूकर निकला हो,
या सुनसान सड़क पर दबे पाँव, 
निकल आए हों बिल्ली के बच्चे।  

आदमी डर रहा है कैसा मर रहा  है ,
बेखौफ़ हैं जानवर हवा ओ नदियाँ ,
अस्तित्व के संघर्ष में गुजरी है सदियाँ,
प्राकृतिक है आँधी तूफ़ान महामारियाँ। 

✍️
प्रदीप तेवतिया
एआरपी हिन्दी 
सिम्भावली (हापुड़)

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