जज्बात
जज्बात
"क्या लिखूं मैं जज़्बात ही कम पड़ जाते है,
बयां करने के लिए अल्फाज़ ही कम पड़ जाते हैं
राहों में चलते-चलते रास्ते ही कम पड़ जाते है,
मंजिल तो दूर हमे अपने ही कम पड़ जाते हैं
जिसको सुना ही न वो आवाज कर जाते हैं,
हर कोई मरते-मरते कई राज़ दफन कर जाते हैं
कौन है वो जो कुछ नया कर कर जाते हैं,
पत्थर की उन दरख़्तों पर मरहम बन जाते हैं
है नूर उनका जो हद को भी पार कर जाते हैं,
अपने बिखरे हुवे ख़ाबगाहों को पंख दे ही जाते हैं
क्या लिखूं मैं जज़्बात ही कम पड़ जाते हैं,
बयां करने के लिए अल्फाज़ ही कम पड़ जाते हैं
एक दिन सफर जान के अन्जान बन ही जाते हैं,
टूटकर काला बादर उजली किरणें बन ही जाते हैं
मिट्टी की तरह सूखकर बेजान हो ही जाते हैं,
एक दिन हम तुम बेआवाज़ हो ही जाते हैं"
टूटा है फिर भी जुड़ने का हौसला कर जाते हैं,
इस उम्मीद से एकदिन वो घोसला पा ही जाते हैं
क्या लिखूं मैं जज़्बात ही कम पड़ जाते है,
बयां करने के लिए अल्फाज़ ही कम पड़ जाते हैं"
✍️कविताकार
आशुतोष कुमार (स०अ०)
प्रा०वि०बन्दीपुर
शि०क्षे०-हथगाँव,फतेहपुर(उ०प्र०)
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