क्या कहूँ ..निशब्द हूँ
क्या कहूँ ..निशब्द हूँ
क्या कहूँ ?
निशब्द हो गया है कंठ मेरा...
व्यग्र व्याकुल हो उठा है हृदय मेरा
खिन्न होकर बैठ गयी हूँ
समाज के कुंठित विचारो से
अब आलिंगन करना चाहती हूँ
हर शय से दूर ......एकांकी से ।
रोक पाने की शक्ति नही मुझमें
उन तीक्ष्ण स्वरों को !
जो हर पल भेदते है ,...मेरी
अंतरात्मा को !!
मैं गगन का सितारा नही
न ही प्रकाशमय दिवाकर हूँ
जो अपने प्रकाश से
व्यथित मन को प्रकाशित कर सकूं ....!
बस केवल प्रतिपल आँखो में
उभरे अनहोनियों को
विवशता के साथ ......बेमन से
देखा करती हूँ ...!
सारी इच्छाए गर्त में समाती गयी
सारी राहे दिशाहीन हो गयी ।
क्या कहूँ ?
ये नियति है ..
ईश्वर की या इंसान के कर्मो की
या फिर ...
हितैषी बन बैठे अपनो की
तुच्छ ,मलिन विचारों वालो ने
सारी अच्छाइयों सोख ली हैं ।
इन मिथक व्यर्थ सी कुरीतियों को
जो धराशयी कर रही घरो की नींव
क्यों नही बदल पा रही हूँ मैं....!
क्यों खत्म नही हो पा रहा
समाज मे व्यप्त भेदभाव
और मेरी जैसी कई बेटियो पे
अनगिनत अत्याचारों में ठहराव।
अब ये कैसी विडम्बना है ....!
हर कोई परिचर्चा करके
हो जाता है...... मौन !
कुछ पल बाद ही विस्मृत
कर दिए जाते ....खबरों में
उछाले अनहोनियों के पन्नो को .।
अंतर्मन की गहराईयों में....
न जाने कितने शब्द अकुलित रूप धारण कर निरन्तर पूछते है
कैसी ये परिस्थितियां है ..?
क्या है इनका विकल्प ...?
ये हादसों का सैलाब .....
यू ही चला करेगा ।
इंसान क्या कभी अपने कुकर्मो से
डरेगा ,...?
पल दो पल की खुशी के लिए
कब तक,....रूह तरसेगी ।
क्या कभी बेबस जिंदगी को
कोई खुशी मिलेगी ।
अनगिनत जो हो रही घटनाओं
की कड़ियाँ.......
वो कब तलक टूटेगी।
क्यों चन्द लकीरो सी सिमट
गयी है जिंदगी ...
क्यों स्वार्थ में अपने,सबकी खुशी
छिनता है आदमी....!
एक कशिश है धुंधली सी
बेबस हर कहानी है।
आँखो में कही न कही
बेबसी का पानी है ।
कब पहचानेगे सब खुद कीआत्मा
कब बदलेगा दोषयुक्त समाज का विधान,....कब उतपन्न होगा !
जो बन सके.....
एक नव सृष्टि का सूत्रधार...!
क्या कहूँ...
बस कल्पनाओ अभिलाषाओं को
जोड़े खड़ी हूँ ....
अनगिनत प्रश्नों की लड़ियाँ
पिरोये पड़ी हूँ.....
पर...हर प्रश्न के उत्तर पर
निशब्द हूँ....!
क्या कहूँ....निशब्द हूँ..!!
✍️
दीप्ति राय (दीपांजलि)सoअo
प्राथमिक विद्यालय रायगंज
खोराबार गोरखपुर
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