शाख़ से होकर जुदा....
शाख़ से होकर जुदा जब ख़ाक पत्ते छानते हैं।
बन्धनों का मोल क्या दम तोड़ कर पहचानते हैं।
उम्र सारी निस्बतों में प्यार से रहकर गुज़ारो,
चार दिन की ज़िन्दगी फिर बैर सब क्यों ठानते हैं।
मेड़ ही खाने लगी है खेत ऐसा दौर आया,
तोड़ना सरहद भला ये अक़्ल वाले मानते हैं।
रहमतें लाखों ख़ुदा की इस जहाँ में पाई सबने,
रूह के अंधे कहाँ यह बात सच्ची जानते हैं।
जो कभी डरते नहीं निर्दोष मुश्किल वक़्त में भी,
चैन से सोते वही चादर सुकूँ की तानते हैं।
ग़ज़लकार- निर्दोष कान्तेय
वज़्न- 2122, 2122, 2122, 2122
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