ज़रा याद उन्हें भी कर लो.....
अंग्रेज़ों के दमन चक्र से, आकुल भारत की धरती थी।
थी पड़ी ग़ुलामी की बेड़ी, जनता तिल तिल कर मरती थी।
हम आज ख़ुशी से जीते हैं, है ऊँचा जो अपना माथा।
ये मिला स्वराज हमें कैसे, संक्षेप सुनो उसकी गाथा।
थी पड़ी ग़ुलामी की बेड़ी, जनता तिल तिल कर मरती थी।
हम आज ख़ुशी से जीते हैं, है ऊँचा जो अपना माथा।
ये मिला स्वराज हमें कैसे, संक्षेप सुनो उसकी गाथा।
अपने भारत की आज़ादी, ऐसे ही ना मिल पाई थी।
जाने कितने ही वीरों ने, हँस कर तब जान गँवाई थी।
सूनी जाने कितनी गोदें, विधवा कितनी ही बहन हुईं।
हँसिया हल भी हथियार हुये,तब पगड़ी भी तन कफ़न हुईं।
जाने कितने ही वीरों ने, हँस कर तब जान गँवाई थी।
सूनी जाने कितनी गोदें, विधवा कितनी ही बहन हुईं।
हँसिया हल भी हथियार हुये,तब पगड़ी भी तन कफ़न हुईं।
नौजवां आज के जिस वय में, मस्ताने सोये रहते हैं।
प्यारी गोरी के सपनों में, बेसुध से खोये रहते हैं।
तब उसी उमर में मतवाले, वे आज़ादी के जंगी थे।
थे वीर भूमि के नर नाहर, अरि कायर बड़े फिरंगी थे।
प्यारी गोरी के सपनों में, बेसुध से खोये रहते हैं।
तब उसी उमर में मतवाले, वे आज़ादी के जंगी थे।
थे वीर भूमि के नर नाहर, अरि कायर बड़े फिरंगी थे।
साक्षी उनके अतिचारों का, था जलियाँवाला बाग़ हुआ।
तब धधक उठी हर मन ज्वाला, कोना कोना तब आग हुआ।
धीरे धीरे यह चिंगारी, पूरे भारत में छाई थी।
उसके बाद समझिये बस ये, सत्ता की शामत आई थी।
तब धधक उठी हर मन ज्वाला, कोना कोना तब आग हुआ।
धीरे धीरे यह चिंगारी, पूरे भारत में छाई थी।
उसके बाद समझिये बस ये, सत्ता की शामत आई थी।
कुयोग कुचक्र था कुछ ऐसा, साइमन तभी भारत आया।
उसका आना इस भूमी पे, था फूटी आँख नहीं भाया।
पंजाब केसरी जी ने तब, बिगुल विद्रोह का बजा दिया।
आर पार की टक्कर का भी, रण ही था जैसे सजा दिया।
उसका आना इस भूमी पे, था फूटी आँख नहीं भाया।
पंजाब केसरी जी ने तब, बिगुल विद्रोह का बजा दिया।
आर पार की टक्कर का भी, रण ही था जैसे सजा दिया।
प्रतिरोध प्रबल के इस कारण, अरि ने सब शक्ति लगाई थी।
इसी यज्ञ ने लाला जी की, प्राणों की आहुति पाई थी।
भगत सिंह ने आहत होकर, तब मन ही मन ये मान लिया।
अब और नहीं सहना हमको, प्रण रण का ऐसा ठान लिया।
इसी यज्ञ ने लाला जी की, प्राणों की आहुति पाई थी।
भगत सिंह ने आहत होकर, तब मन ही मन ये मान लिया।
अब और नहीं सहना हमको, प्रण रण का ऐसा ठान लिया।
लाला के जाने का बदला, उनने तत्काल चुका डाला।
अंग्रेज़ों के इक अफ़सर को, सुरलोक तभी पहुँचा डाला।
सुखदेव भगत और राजगुरु, आज़ादी के मतवाले थे।
पर विरोध के अगले क्रम में , कुछ भीषण करने वाले थे।
अंग्रेज़ों के इक अफ़सर को, सुरलोक तभी पहुँचा डाला।
सुखदेव भगत और राजगुरु, आज़ादी के मतवाले थे।
पर विरोध के अगले क्रम में , कुछ भीषण करने वाले थे।
अपने साहस की सीमा को, उनने था जैसे तोड़ दिया।
अंग्रेज़ों से भरे भवन में, बम भीषण सा इक फोड़ दिया।
इस पर भी सिँह समान थे वे, तब मध्य भवन में खड़े रहे।
जयघोष करें भारत माँ के, वे निडर अडिग से अड़े रहे।
अंग्रेज़ों से भरे भवन में, बम भीषण सा इक फोड़ दिया।
इस पर भी सिँह समान थे वे, तब मध्य भवन में खड़े रहे।
जयघोष करें भारत माँ के, वे निडर अडिग से अड़े रहे।
क्या बाद हुआ बतलायें क्या, फ़िर काल चक्र ऐसा घूमा।
हँसते हँसते उन वीरों ने, था फाँसी का फंदा चूमा।
सजल नयन से इन वीरों को, मैं शत शत शीश झुकाता हूँ।
अपने प्रभु के दर्शन इनमें, सच कहता हूँ मैं पाता हूँ।
हँसते हँसते उन वीरों ने, था फाँसी का फंदा चूमा।
सजल नयन से इन वीरों को, मैं शत शत शीश झुकाता हूँ।
अपने प्रभु के दर्शन इनमें, सच कहता हूँ मैं पाता हूँ।
भारत के हर इक वासी को, इनका क़र्ज़ चुकाना होगा।
अब सबको ही तन मन धन से, भारत-धर्म निभाना होगा।
उन वीरों की वीर गती का, सम्मान तभी सच्चा होगा।
जब उनके स्वप्न सजाने को , तत्पर बच्चा बच्चा होगा।
अब सबको ही तन मन धन से, भारत-धर्म निभाना होगा।
उन वीरों की वीर गती का, सम्मान तभी सच्चा होगा।
जब उनके स्वप्न सजाने को , तत्पर बच्चा बच्चा होगा।
रचना- निर्दोष कांतेय
________________________________
________________________________
काव्य विधा- मत्त सवैया या राधेश्यामी छंद
शिल्प- मत्त सवैया छंद एक मात्रिक छंद है यह छंद चार पंक्तियों में लिखा जाता है और प्रत्येक पंक्ति में ३२ मात्राएँ होती हैं तथा १६, १६ मात्राओं पर यति व अंत गुरु से होता है | तुकांतता दो-दो पंक्तियों या चारों पंक्तियों में निभायी जाती है।
कोई टिप्पणी नहीं