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एक थी नानी

वह नानी का दुलार,
वोह मौसियों का प्यार,
याद आता है मुझे,
उस घर का हर एक दरो दिवार, 
वोह आँगन में बिछी चारपाई, 
वोह ताक में रखी हुई मिठाई, 
वोह छीके पर टंगी दूध की देगची, 
वोह सहनची में रखी हुई अटेची, 
वोह नल का ठंडा पानी,
वोह घिरौची पर रखे मटके,
यार वोह मंज़र था सबसे हटके, 
वोह कभी फल न देने वाला अमरुद का पेड़, 
वोह पके हुए बेरियों के बेर, 
वोह बावर्चीखाने के चूल्हे से उठता धुआँ, 
नानी बताती थी के पहले यहीं था कुआँ 
वोह आँगन में गिलहरियों का धमा चौकड़ी भरना,
वोह शाम के अँधेरे में दरवाज़े से निकलने से डरना, 
वोह टूटे बरामदे के कन्गूरेनुमा दर, 
कैसे करती थी नानी उनमे बसर, दोस्तों !
अब जिंदगानी काफी बदल गयी है पर
मुझको आज भी याद आता है अपनी नानी का घर, 
मुझको आज भी याद आता है अपनी नानी का घर।।



@AF
रचनाकार  : आमिर फारूक, सहायक अध्यापक प्रा0 वि0 मछिया, जनपद - बहराइच, (उप्र)
रूचियां  : लेखन और अध्ययन ।।

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