उपवन महकाने निकला हूँ
मिट्टी के कच्चे दीयों को
सूरज बनाने निकला हूँ,
जमीं के इन सितारों को
गगन ले जाने निकला हूँ।
ये नन्हें-नन्हें फूल जो
पतझड़ में खिल रहे हैं,
वीरान पड़े उपवन को
इनसे महकाने निकला हूँ।
तुतलाती-प्यारी गूँज से
बस्ती चहकाने निकला हूँ।
सुरीले इनकी तानों पर
सितार बजाने निकला हूँ।
कुछ परिंदे जो सर्दियों में
यूँ काँपते रहते हैं,
तिनका-तिनका सहेजकर
घरौंदा बनाने निकला हूँ।
बस्ती चहकाने निकला हूँ।
सुरीले इनकी तानों पर
सितार बजाने निकला हूँ।
कुछ परिंदे जो सर्दियों में
यूँ काँपते रहते हैं,
तिनका-तिनका सहेजकर
घरौंदा बनाने निकला हूँ।
इन सुंदर भित्ति-चित्रों से
घर को सजाने निकला हूँ।
नाज़ुक-सी दीवारों को
बारिश से बचाने निकला हूँ।
हयात बन गयी है इनकी
रेगिस्तान की तरह,
बालू को निचोड़कर
सरिता बहाने निकला हूँ।
घर को सजाने निकला हूँ।
नाज़ुक-सी दीवारों को
बारिश से बचाने निकला हूँ।
हयात बन गयी है इनकी
रेगिस्तान की तरह,
बालू को निचोड़कर
सरिता बहाने निकला हूँ।
रचयिता
अशोक कुमार गुप्त,
स0अ0,
प्रा0 वि0 टड़वा रामबर,
क्षेत्र- रामकोला,
जनपद- कुशीनगर।
अशोक कुमार गुप्त,
स0अ0,
प्रा0 वि0 टड़वा रामबर,
क्षेत्र- रामकोला,
जनपद- कुशीनगर।
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