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लौह से जब हों इरादे


घाव जो अपने कभी दें अश्क़ तब चुकते नहीं।
जान लेकर छोड़ते हैं वे फ़क़त दुखते नहीं।

साथ अपनों का रहे सिर पर ख़ुदा का हाथ हो,
मुश्किलों के सामने हम हारकर झुकते नहीं।

कब भला अंजाम पाईं तीरगी की साज़िशें,
आँधियों के ज़ोर से सूरज कभी बुझते नहीं।

फूल देकर इस जहां को ढूंढ लेता है ख़ुशी,
बाग़बां के हाथ में कांटे तभी चुभते नहीं।

लौह से जब  हों इरादे हौसला पर्वत सा हो,
मंज़िलें मिलने से पहले पाँव फिर रुकते नहीं।

ग़ज़लकार- निर्दोष कान्तेय
वज़्न- 2122 2122 2122 212

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