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आँसू

मैं जब भी ढलका
किसी मासूम की आँखों से
तो न जाने कितने
ही सपने
बचपन की शामें
जो सुलगते रहे
भूख-अभावों की आग से
मेरे अस्तित्व पर हँसते ,
मैं चुपचाप आँखों से निकल
खोजता अपने मायने ,
बेबस माँ की निगाहें
छलकते आँसुओं में
बयान करती हैं
मन में छिपे दर्द को,
पिता की आँखों से
लुढ़कता मैं झुर्रियों में
पढ़ता हूँ अनगिनत
अनकही बातें ,
युवा निगाहें
जो भटक जातीं
बार-बार पहचानी राहों पर
तब अचानक
कोरों में टपकने को
बेताब सपने
मेरी ओट में
छिप जाते ,
अनकही तकलीफें
असहाय जिंदगी
जब बहाती है
सहमी रातों में चुपचाप
आँसू ,
तो मैं सोचता हूँ
काश मैं भी बहा सकता
आँसू ,
जब शब्द नही मिलते
आँसू अर्थ समझाते हैं,
लेकिन मैं कहाँ से लाऊं
आँसू ,
मैं तो हूँ स्वयं
आँसू
------ निरुपमा मिश्रा " नीरु "

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