मोहब्बत भी अजब बला है सपना सच,झूठ में पला है दिल पर काबिज रहा हमेशा लफ्ज़ जो होंठ से फिसला है फूलों सा महफूज़ कहाँ वो मासूम काँटों पर चला है मौसम इरादों का हमेशा धूप कभी छाँव सिलसिला है ऐब नही बातें अपनी हों गुनाह है कि गैर मसला है ---- निरुपमा मिश्रा "नीरु "
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