कभी-कभी लेखक भी हार मानता है
कभी-कभी लेखक भी हार मानता है
पुराने ख्यालों में बसा एक लेखक,
सपनों का बुनता था एक सुनहरा शहर।
सोचा, अब वक्त है किताब छपवाने का,
शब्दों को पन्नों पर अमर बनाने का।
लेकिन छपाई का खेल बड़ा विद्रूप,
पैसों की धूल में उड़ता हर स्वरूप।
प्रकाशकों की शर्तें, अनगिनत सवाल,
सपने धुंधले होते, टूटते हर हाल।
लोकार्पण की तारीखें, सजने की फिक्र,
श्रोताओं की कमी से मन में उभरी कुटिल।
"कौन पढ़ेगा, कौन सुनेगा?" यह डर,
लेखक का दिल बैठा, घिर गया अंधेरों में घर।
सोचता रहा, कुछ करना चाहिए उपाय,
लेकिन अंत में आया यही ख्याल,
किताब को दबा दूं समय के भार में,
शायद बेहतर हो ये खो जाए विचार में।
विद्रूपताओं से हार मान लिया उसने,
किताब का सपना अधूरा छोड़ दिया,
कहा, "न छपवाऊंगा, न लोकार्पण कराऊंगा,
अपने ख्यालों में ही सजीव इसे पाऊंगा।"
कभी-कभी लेखक भी हार मानता है,
किताब नहीं, सपनों को बस जीता है।
✍️ लेखक : प्रवीण त्रिवेदी "दुनाली फतेहपुरी"
शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों से जुड़े मुद्दों के लिए समर्पित
फतेहपुर, आजकल बात कहने के लिए कविता उनका नया हथियार बना हुआ है।
परिचय
बेसिक शिक्षक के रूप में कार्यरत आकांक्षी जनपद फ़तेहपुर से आने वाले "प्रवीण त्रिवेदी" शिक्षा से जुड़े लगभग हर मामलों पर और हर फोरम पर अपनी राय रखने के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा के नीतिगत पहलू से लेकर विद्यालय के अंदर बच्चों के अधिकार व उनकी आवाजें और शिक्षकों की शिक्षण से लेकर उनकी सेवाओं की समस्याओं और समाधान पर वह लगातार सक्रिय रहते हैं।
शिक्षा विशेष रूप से "प्राथमिक शिक्षा" को लेकर उनके आलेख कई पत्र पत्रिकाओं , साइट्स और समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं। "प्राइमरी का मास्टर" ब्लॉग के जरिये भी शिक्षा से जुड़े मुद्दों और सामजिक सरोकारों पर बराबर सार्वजनिक चर्चा व उसके समाधान को लेकर लगातार सक्रियता से मुखर रहते है।
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