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आपदा:एक अवसर

आपदा:एक अवसर

यूंँ तो 'आपदा में अवसर' इस समय कुछ अलग ही ढंग से लिया जाने लगा है.. पर एक बात तो सच है-हर आपदा कोई न कोई सुअवसर जरूर छोड़ती है ।इस आपदा ने भी हमारे लिए अप्रतिम अवसर के द्वार खोले हैं-हमारे सहज होने का,सजग होने का,संयमित होने का,संतुलित होने का,संवेदनशील होने का....।
         बिखरते रिश्तों और बदलते व्यवहार पर अल्पकालिक ही सही पर विराम तो लगा  है...यह अवसर तो हमारे हाथ लगा है कि इस अल्पविराम को पूर्णता की ओर ले चलें.. एक शुभ संकल्प लें...
  " तन्मे मन:शिव संकल्पमस्तु "
क्योंकि आज जो सही है वही कल भी सही होगा।
       ' सोरहवाँ घरी अपने लोगवा काम आवेला '-पुरखों की यह बात संकट के इस काल में बिल्कुल सही साबित हुई है... और निश्चित ही कल भी यही होगा।कल भी अपने ही काम आएंगे।
        'जे लग बा उ सग बा'
-लॉकडाउन ने इसे भी चरितार्थ कर दिया है... हम हैं कि अपनी तथाकथित तार्किक बुद्धि का प्रयोग उन बातों के खण्डन में ही लगाते रहे...कभी गौर तो करें! कितनी पीढ़ियों का वह अनुभव रहा होगा...न जाने कितने कसौटियों पर कसा गया होगा..तमाम निकषों पर खरा उतरने के बाद ही यह निष्कर्ष निकला होगा।
      हमें एक मौका तो मिला है-संँभलने का,वरना हम तो धन के अर्जन,संचयन व संवर्धन में ही इतने मशग़ूल थे कि स्वजन खुर्द-बुर्द हो गए थे...आगे बढ़ने की होड़ में अपने न जाने कितने पीछे छूट गए थे।यहांँ कबीर दास जी की इन पंक्तियों पर विचार कर लेना जरूरी है-

कबीर सो धन संचिए,जो आगे को होइ।
सीस चढ़ाए पोटली,ले जात न देख्या कोइ।।

      धन से सुख के साधन लाख संँजो लें पर स्वजन की कमी हमें आनंद से वंचित रखती है-यह कटु सत्य है...और जब हम जगदानंद की अनुभूति लेने में ही असफल हो रहे हैं तो भला हम ब्रह्मानंद की ओर कैसे अग्रसर होंगे जो मानव मात्र का परम लक्ष्य है।
      सुख में कुछ न कुछ शेष रह जाता है पर आनंद में कुछ भी शेष नहीं रहता..

धान नहीं धीणों नहिं,नहिं रूपयो रोक।
जीम्मण बैठे रामदास,आन मिलै सब थोक।।

     रिश्ते भी फरिश्ते की तरह होते हैं..फर्क सिर्फ इतना है कि फरिश्ते जन्नत में होते हैं और रिश्ते ज़मीन पर..तो इस ज़मीनी हकीकत को नज़रअंदाज़ न किया जाय-

जो भूल हुई मदहोशी में,
वो भूल न फिर से हो जाय।
चंद दिनों की लौकिकता में,
मौलिकता न खो जाय।।

सहेज सकें संस्कृति को, 
सत्य-सनातन न खो जाय।
अधुनातन में आंँखें मूंँद,
चिर पुरातन न खो जाय।।

होड़-तोड़ की अंध दौड़ में,
चूक न फिर से हो जाय।
कुछ सपनों की खातिर,
कोई अपना न खो जाय।।

कुदरत की यह घंटी है,
देर न फिर से हो जाय।
प्रकृति सा प्रवृति धरें,
अंधेर न फिर से हो जाय।। 
      शायद अब भी हम संँभल सकें... संतुलित हो सकें वरना प्रकृति तो अपने हिसाब से संतुलन बनाती ही रहेगी।

✍️
अलकेश मणि त्रिपाठी "अविरल"
(स.अ.)पू.मा.वि.- दुबौली
 विकास क्षेत्र - सलेमपुर
 जनपद - देवरिया* ( उ.प्र .)

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