मेरा नन्हा बचपन खो गया 🧍
बाल मजदूर दिवस के अवसर पर एक बाल मजदूर की अंतर्मन की मार्मिक व्यथा कुछ लाइनों में व्यक्त है,,,,,
मेरा नन्हा बचपन खो गया 🧍
मेरी गरीबी की लाचारी में
मेरा नन्हा बचपन खो गया,,,।
मेरी आंखों में पलता
हर मासूम सा मेरा सपना
आंखों से ओझल हो गया,,।
जब मुझे चाहिए थी
एक घनी छांव ममता की ,,
प्यार भरा आशीष
एक पूर्ण कुटुंब अपनों की,,
जाने क्यों यह सारे हक लेने से,,
मैं वंचित रह गया ।
नहीं कोई ठिकाना मेरा
फिरता हूं मैं इधर उधर,,,
सड़क ही है मेरा बिस्तर,
गगन मेरा चादर बन गया ।
जिन हाथों में होनी थी किताबें उनमें ईटों का बोझ मिल गया ।
खेल खिलौने कुछ ना ,,,मेरे पास! पलता हूं कूड़े के साथ,,
नन्हे हाथों से करता
गैरों के जूतों को साफ,,
बात बात पर गाली खाता ।
बीच में सबके बस ,,
छोटू बन के रह गया ।
मेरा नन्हा बचपन खो गया !
कहते सब भगवान रूप है
नन्हे प्यारे बच्चे,,,
फिर क्यों सब मुझे
लावारिस सा कचरे में फेंके ,,?
बना मुझे मजदूर ,,,
जीवन तम से क्यों भर दिया ।
अपने कर्मों का लेखा
क्यों मेरे मत्थे मढ़ दिया ।
अंधेरी घनी रातों में अकेले
मैं डरा सहमा सो गया ।
मैं बेबस,,,, लघु पग से
बाल श्रमिक बन गया ।
देखो ना एक रोटी की खातिर
मेरा नन्हा बचपन खो गया,,!
✍️
दीप्ति राय (दीपांजलि )
सहायक अध्यापक
प्राथमिक विद्यालय रायगंज
क्षेत्र-खोराबार,गोरखपुर
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