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गुरु अनंत-गुरु कथा अनंता

गुरु सेतु के समान होता है जिस पर चलकर शिष्य आत्मज्ञान के माध्यम से चेतना के शिखर को प्राप्त करता है|  गुरु शब्द 'गु' अर्थात् अंधकार एवं ' रु' अर्थात् प्रकाश के संजोयन से बना है इसका अभिप्राय है कि अपने ज्ञान के प्रकाश  से शिष्य के अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने वाला ही गुरु है, गुरु केवल अक्षर ज्ञान तक ही सीमित नही होता बल्कि वह जीवन के प्रत्येक अंधकार को दूर करता है , जीवन को सार्थक बनाता है यदि कहा जाये कि गुरु कोई व्यक्ति नहीं बल्कि शक्ति है तो अतिशयोक्ति नही होगी |
      ध्यानमूलं गुरोर्मूर्ति: पूजामूलं गुरोपद्म |
         मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरो कृपा||
गुरु की अनेक श्रेणियां होती हैं जैसे कि प्रथम गुरु वह है जो सबसे पहले हमारा परिचय संसार से कराता है, हमारी सामान्य जिज्ञासाओं का निवारण करता है इसलिए शास्त्रों में माता-पिता को प्रथम गुरु एवं देवस्वरुप कहा गया है, द्वितीय श्रेणी में वह गुरु आते हैं जो हमारी भौतिक उन्नति में मार्गदर्शक- सहायक बनते हैं , तृतीय श्रेणी में वो गुरु होते हैं जो मानसिक- भावनात्मक उन्नति में सहायक होते हैं तथा अंतिम व श्रेष्ठ श्रेणी में सद्गुरु आते हैं जो हमारी  आत्मिक उन्नति के मार्गदर्शक , सहायक, भूत-भविष्य के ज्ञाता, हमारी आत्मोन्नति एवं मुक्ति के सहायक होते हैं |
    गुरु हमें जीवन का यथार्थ मूल्यांकन करना सिखाते हैं किन्तु जीवन का यथार्थ मूल्यांकन वही कर पाता है जो आत्मगरिमा से परिचित हो अन्यथा आत्मगरिमा से वंचित व्यक्ति जीवन की गरिमा का मूल्यांकन नही कर पाता और अंतत: अपनी सामर्थ्य को नष्ट करके पश्चाताप के अश्रुओं के साथ संसार से विदा हो जाता है|
     टिमटिमाते दीपक को देखकर सूरज ने कहा कि - " नन्हे बच्चे अंधकार की शक्ति नही देखी तूने, अजगर है वो तुझे निगल जायेगा, चुपचाप बैठ तू अपना जीवन नष्ट न कर" तो दीपक बोला कि - " तात् ! निरंतर प्रकाशित करने का व्रत जब आपने नही छोड़ा तो मैं कैसे छोड़ दूँ, अतः मैं भी जब तक जीवन है अर्थात् दीपक में जब तक तेल है मैं जलता रहूंगा, प्रकाश देता रहूंगा"
मानव जीवन की गरिमा की सबसे बड़ी कसौटी है विनम्रता, निरंहकारिता ---
" साईं इतना दीजिये जामे कुटुम समाय
  मैं भी भूखा न रहूं अतिथि न भूखा जाय"
ज्ञान अथाह है, गुरु अनंत हैं, हममें से हर कोई सब कुछ नही जानता लेकिन कर कोई कुछ न कुछ अवश्य जानता है | विकृत वातावरण, विकृत साहित्य की सहज सुलभता के कारण प्रायः लोगों में स्वाध्याय एवं आत्मचिंतन की प्रवृत्ति ही नही जग पाती है | साधन- सुविधायें, संपदायें कमाना और अर्जित करना गलत नही है किंतु उसके कारण अपने को दूसरों से श्रेष्ठ मानकर उसका भौंड़ा प्रदर्शन करके दूसरों पर अपने बड़प्पन की छाप छोड़ने का प्रयत्न ही अहंकार है|
       श्री मद्भगवद्गीता में कहा गया है कि ----
"  देहिनोsस्मिन्यथा देहे, कौमारं,यौवनं, जरा"
अर्थात् इस शरीर की कौमार्य, यौवन एवं वृद्धता की तीनों अवस्थायें स्वाभाविक एवं अनिवार्य हैं|
वृद्धावस्था, बाल्यावस्था के प्रति फैली हुई घृणा, उपेक्षा,अवमानना, तथा युवाशक्ति के बिखराव, भटकाव से पाशविक संस्कृति का ही विस्तार होगा, मनुष्य जब अपनी स्वतंत्रता की औचित्य सीमा का  सदुपयोग करता है तो वही सद्कर्म और जब सीमाओं का उल्लंघन करता है तो दुष्कर्म होता है इसलिए मनुष्य अपने कर्मों के परिणाम के लिए स्वयं जिम्मेदार होता है| सही दृष्टिकोण के अभाव में ही अनेक कठिनाईयाँ उत्पन्न होती हैं |
   जिस माता-पिता ने जन्म देकर आत्मनिर्भर बनाने के लिए पालन-पोषण, प्रशिक्षण एवं शिक्षा की व्यवस्था की,सुरक्षा- मार्गदर्शन दिया उनके प्रति कृतज्ञ न होना, जिन गुरुओं ने प्रतिभा परिष्कृत करके मेधावी बनाया उनके प्रति श्रृद्धा न होना, साथ ही मानवता , समस्त सृष्टि के प्रति निष्ठावान, एवं अपने देश , संस्कृति के प्रति सम्मान न होना अत्यंत खेदजनक, शर्मनाक तथा विचारणीय है|
  मनुष्य की वास्तविक संपदा, पहचान उसका चरित्र, व्यक्तित्व , विचार-व्यवहार तथा संस्कार होते हैं जिनकी प्राणप्रण से रक्षा एवं विस्तार ही गुरुजनों के प्रति सच्ची भावांजलि है|
" गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनायें "
----------- निरुपमा मिश्रा " नीरू "

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